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तत्त्वार्थ सूत्र
[ ६. ३७-४४
कैसे हो इस दिशा में सतत विचार करना अपायविचय धर्म्यध्यान है । ३ द्रव्य, क्षेत्र, काल भव और भाव इनकी अपेक्षा कर्म कैसे कैसे फल देते हैं इसका सतत विचार करना विपाकविचय धर्म्यध्यान है । ४ लोक के आकार और उसके स्वरूप के विचार में अपने चित्त को लगाना संस्थानविचय धर्म्यध्यान है । ये धर्म्यध्यान के चार भेद हैं। ये अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवों के सम्भव हैं । तात्पर्य यह है कि श्रेणि आरोहण के पहले-पहले धर्म्यध्यान होता है. और श्रेणि आरोहण के समय से शुक्लध्यान होता है ॥ ३६ ॥
शुक्त ध्यान का निरूपण -
शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः || ३७ ॥
परे केवलिनः || ३८ ॥
पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्म क्रियाप्रतिपातिव्युपरत क्रियानिवर्तीनि । योगायोगायोगानाम् ॥ ४० ॥ एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥ ४१ ॥ वीचारं द्वितीयम् ।। ४२ ।। वितर्कः श्रुतम् ॥ ४३ ॥ . वीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः ॥ ४४ ॥
आदि के दो शुक्ल ध्यान पूर्व विद के होते हैं । बाद के दो केवली के होते हैं।
पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरत क्रियानिवर्ति ये चार शुक्लध्यान हैं ।
वे क्रम से तीन योग वाले, एक योग वाले, काययोग वाले और अयोगी के होते हैं।