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३. १-६.] अधोलोक का विशेष वर्णन
१४५ और छठी और सातवीं भूमि में उत्तरोत्तर शीत की बहुलता है। इन नरकों में यह शीत और उष्ण इतना प्रचुर है कि यदि मेरु के बराबर लोहे का गोला उष्ण नरकों में डाला जाय तो वहाँ की गरमी से वह एक क्षण में पिघल जाय और उस पिघले हुए गरम लोहे को यदि शीत नरकों में डाला जांय लो वहाँ की ठण्डी से वह एक क्षण में जम जाय। उनकी विक्रिया भी उत्तरोत्तर अशुभ होती है। वे अच्छा करने
का विचार करते हैं पर होता है बुरा। यदि विक्रिया विक्रिया पाया से शुभ बनाना चाहते हैं तो बन जाता है अशुभ ॥३॥
नारकियों को शीत उष्ण की वेदना तो है ही। पर भूख प्यास की वेदना भी कुछ कम नहीं है। सब का भोजन यदि एक नारकी को मिल जाय तो भी उसकी भूख न जाय ।। यही बात प्यास की है। कितना भी पानी पीने को क्यों न मिल जाय उससे उनकी प्यास बुझने की नहीं ? ___ आपस में भी वे एक दूसरे के बैर की याद करके कुत्तों के समान लड़ते हैं। पूर्व भव का स्मरण करके उनकी वह वैर की गांठ और
दृढ़तर हो जाती है जिससे वे अपनी विक्रिया से " तरवार, वसूला, फरसा और बरछी आदि बना कर
उनसे तथा अपने हाथ, पांव और दांतों से छेदना, भेदना, छीलना और काटना आदि के द्वारा परस्पर अति तीव्र दुःख को उत्पन्न करते हैं ॥४॥
यह क्षेत्र जन्य और परस्पर जन्य दुःख है। इसके अतिरिक्त उन्हें एक तीसरे प्रकार का दुःख और होता है यह अम्बावरीष जाति के असुरों द्वारा उत्पन्न किया जाता है। पहले दो प्रकार के दुख सातों भूमियों में हैं परन्तु यह तीसरे प्रकार का दुःख प्रारम्भ की तीन भूमियों में ही है क्योंकि इन असुरकुमार देवों का गमनागमन यहीं तक पाया जाता है। ये स्वभाव से ही निर्दयी होते हैं। अनेक सुख साधनों के
तीन प्रक