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२.१७ -२१.] इन्द्रियों की संख्या, भेद प्रभेद, नाम निर्देश, विषय ९५ पायु-गुदा और उपस्थ लिङ्ग अर्थात् जननेन्द्रिय को भी इन्द्रिय बतलाया है परन्तु वे कर्मेन्द्रियां हैं। और यहां उपयोग का अधिकार होने से केवल ज्ञानेन्द्रियों का ग्रहण किया है जो पाँच से अधिक नहीं हैं, इसलिये सूत्र में इन्द्रियां पांच हैं यह कहा है।
शंका-ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय का अभिप्राय क्या है ?
समाधान-जिनसे ज्ञान होता है वे ज्ञानेन्द्रिय हैं और जो बोलना, चलना, उठाना, धरना, नीहार करना आदि कर्मों की साधन हैं वे कर्मेन्द्रिय हैं ॥ १५॥
उक्त पांचों इन्द्रियों के द्रव्य और भावरूप से दो दो भेद हैं। इन्द्रियाकार पुद्गल और आत्म प्रदेशों की रचना द्रव्येन्द्रिय है और क्षयोपशम विशेष से होनेवाला आत्मा का ज्ञान दर्शन रूप परिणाम भावेन्द्रिय है ।। १६ ॥
द्रव्येन्द्रिय के दो भेद हैं-निवृत्ति और उपकरण । निर्वृत्ति का अर्थ रचना है। इसलिये निवृत्ति द्रव्येन्द्रिय का अर्थ हुआ इन्द्रियाकार रचना । यह बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार की है। बाह्य निवृत्ति से इन्द्रियाकार पुद्गल रचना ली गई है और आभ्यन्तर निवृत्ति से इन्द्रियाकार आत्मप्रदेश लिये गये हैं। यद्यपि प्रतिनियत इन्द्रिय सम्बन्धी ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम सर्वांग होता है तथापि आंगोपांग नामकर्म के उदय से जहां पुद्गल प्रचयरूप जिस द्रव्येन्द्रिय की रचना होती है वहीं के आत्मप्रदेशों में उस उस इन्द्रिय के कार्य करने की क्षमता होती है। उपकरण का अर्थ है उपकार का प्रयोजक साधन । यह भी बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का है ! नेत्र इन्द्रिय में कृष्ण और शुक्ल मण्डल आभ्यन्तर उपकरण है और अक्षिपत्र आदि बाह्य उपकरण है। इसी प्रकार शेष इन्द्रियों में भी जानना चाहिये ।। १७ ॥
भावेन्द्रिय के दो भेद हैं-लब्धि और उपयोग। मतिज्ञानावरण