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२६२ तत्त्वार्थ सूत्र
[४. २६-३२. एक सागरोपम को होती है। इसी प्रकार शेष नौ भेदों के दक्षिण दिशा के इन्द्रों की तीन पल्य आदि स्थिति जान लेना चाहिये । किन्तु इसी स्थिति को साधिक कर देने पर वह उत्तर दिशा के इन्द्रों की हो जाती है इतना यहाँ विशेप जानना चाहिये । इन असुरकुमार आदि के शेष सामानिक आदि भेदों की स्थिति लोकानुयोग के अन्थों से जान लेना चाहिये । सूत्र में ऐसे भेद की विवक्षा न करके स्थिति कही गई है। फिर भी वह किसके प्राप्त होती है यह व्याख्यान विशेष से ही जाना जाता है । २८।।
___ वैमानिकों की उत्कृष्ट स्थिति-- सौधर्मेशानयोः सागरोपमे अधिके । २९ । सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त । ३० । त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि तु । ३१ ।
आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिपु सर्वार्थसिद्धौ च । ३२। सौधर्म और ऐशान में कुछ अधिक दो सागरोपम स्थिति है। सानत्कुमार माहेन्द्र में कुछ अधिक सात सागरोपम स्थिति है।
ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगल से लेकर प्रत्येक युगल में क्रम से साधिक तीन से अधिक सात सागरोपम, साधिक सात से अधिक सात सागरोपम, साधिक नौ से अधिक सात सागरोपम, साधिक ग्यारह से अधिक सात सागरोपम, तेरह से अधिक सात सागरोपम और पन्द्रह से अधिक सात सागरोपम प्रमाण स्थिति है ।
भारण-अच्युत के ऊपर नौ ग्रेवेयक में से प्रत्येक में; नौ अनुदिश में, चार विजयादिक में एक एक सागरोपम अधिक स्थिति है और सर्वार्थसिद्धि में पूरी तेंतीस सागरोपम प्रमाण स्थिति है।
वैमानिकों की आगे ३३ और ३४ वें सूत्र में जघन्य स्थिति बत