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तत्त्वार्थसूत्र [६. १०-२७. और स्वभाव की मृदुता भी मनुष्यायु का आस्रव है। निःशीलत्व और निव्रतत्व तथा पूर्वोक्त अल्प आरम्भ आदि का भाव सभी आयुओं के आस्रव हैं।
सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये देवायु के आस्रव हैं।
* और सम्यक्त्व भी देवायु का आस्रव है। योग की वक्रता और विसंवादन ये अशुभ नाम कर्म के प्रास्त्रव हैं।
इनके विपरीत अर्थात् योग की सरलता और अविसंवादन ये शुभ नाम कर्म के आस्रव हैं। ____दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों में निर्दोप वृत्ति, सतत ज्ञानोपयोग, सतत संवेग, शक्ति के अनुसार त्याग, शक्ति क अनुसार तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अरहंतभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति प्रवचनभक्ति, आवश्यक क्रियाओं को नहीं छोड़ना, मार्ग प्रभावना और प्रवचनवात्सल्य ये सब तीर्थकर नाम कर्म के आस्रव हैं।
परिनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का उच्छादन और असद्गुणों का उद्भावन ये नीच गोत्रकर्म के आस्रव हैं।
उनका विपर्यय अर्थात् परप्रशंसा, आत्मनिन्दा आदि तथा नम्रवृत्ति और निरभिमानता ये उच्चगोत्र कर्म के आस्रव हैं। विघ्न करना अन्तराय कर्म का प्रास्रव है।।
अब तक सामान्य से समग्र कर्मों के प्रास्रव-बन्ध के कारण बतलाये। अब प्रत्येक कर्म के आरवों-बन्धुहेतुओं का वर्णन करते हैं। यद्यपि सब कर्मों का प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योग से होता है तथा स्थिति बन्ध और अनुभागबन्ध कषाय से होता है फिर भी निमित्तभेद
* सम्यक्त्त्र मनुष्यायु का भी आसव है यह जान कर भाष्यकार ने इस सूत्र को नहीं रखा ऐसा जान पड़ता है।