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२७२ तत्त्वार्थसूत्र
[६. ३. इनमें से एकेन्द्रिय जीवके केवल काययोग होता है, क्योंकि उसके वचनयोग और मनोयोग की कारणभूत सामग्री नहीं पाई जाती । द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी तक के जीवों के काय और वचन
ये दो योग होते हैं । उसमें भी भाषापर्याप्ति की समाप्ति 'किसके कितने योग के पूर्व तक काय योग ही होता है। संज्ञी जीवों के
हात ह तीनों योग होते हैं। उसमें भी वचनयोग भाषा पर्याप्ति की समाप्ति के अनन्तर समय से और मनोयोग मनःपर्याप्ति की समाप्ति के अनन्तर समय से हो सकता है। तथापि एक काल में एक जीव के एक ही योग होता है। विवेक यह है कि जिस जाति की वर्गणाएँ जब आत्म प्रदेश परिस्पन्द में कारण होती हैं तब वही योग होता है।
यह तीनों प्रकार का योग ही प्रास्त्रव है। आस्रव को द्वार की उपमा दी गई है। जिस प्रकार नाले आदि के मुख द्वारा जलाशय में पानी का प्रवेश होता है उसी प्रकार योग द्वारा ही कर्म और नोकर्म वर्गणाओं का प्रहण होकर उनका आमा से सम्बन्ध होता है इसलिये योग को आस्रव कहा है ॥ १-२॥
योग के भेद और उनका कार्यशुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ॥३॥ शुभ योग पुण्य का और अशुभ योग पाप का आस्रव है। प्रस्तुत सूत्र में योग के दो भेद किये गये हैं एक शुभ योग और दूसरा अशुभ योग। मन, वचन और काय ये प्रत्येक योग
शुभ और अशुभ के भेद से दो दो प्रकार के हो जाते। परिणामोंके आधार हैं। यद्यपि योग आत्मप्रदेशों के परिस्पन्द को कहते
स याग कम है. इसलिये उसमें शुभाशुभ की कल्पना सम्भव नहीं हैं। तथापि यहाँ योग के शुभत्व और अशुभत्व का कारण भिन्न
और दूसरा अशी योग के दो भेद पाप का आस्रव