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तत्त्वार्थसूत्र [४.२०-२१. यहाँ विचारणीय यह है कि क्या ये सब बातें पुण्य के प्रभाव से होती हैं ? यदि यही मान लिया जाय कि ये सब बातें पुण्य के प्रभाव से होती हैं तो इन सब के होने में किसका पुण्य कारण है ? भावी तीर्थंकरका पुण्य तो कारण माना नहीं जा सकता, क्यों कि सभी भावी तीर्थंकरों का सद्भाव स्वर्ग में न होकर कुछ का नरक में भी होता है जिसके एक भी पुण्य प्रकृति का उदय नहीं पाया जाता है। देवों के पुण्योदय से भी इन सब कामों का होना मानना उचित नहीं, क्यों कि एक तो अन्य के पुण्य से अन्य को उसका फल नहीं मिल सकता । दूसरे जितने भी कर्म हैं उनमें से जीवविपाकी कर्म तो जीवगत भावों के होने में निमित्त हैं और पुद्गल विपाकी कर्म शरीर, वचन मन और श्वासोच्छ्रास के होने में निमित्त हैं। इनके सिवा ऐसा एक भी कर्म शेष नहीं बचता जिसका उक्त काम माना जा सके । इस लिये तीर्थंकर के पंचकल्याणक के समय देवों की आसन का कम्पायमान होना आदि को पुण्य कर्म का काम मानना उचित नहीं है।
तो फिर ये किसके काम हैं यह प्रश्न खड़ा ही रहता है सो इसका यह उत्तर है कि देवों द्वारा रत्नों की वर्षा व समवसरण की रचना का किया जाना आदि जितने भी देवकृत काम हैं वे सब भक्तिवश आकर देथ करते हैं इस लिये इनका मुख्य कारण देवों का धर्मानुराग और भक्ति है किसी का कम नहीं। और देवों की आसन का कम्पायमान होना आदि जितने भी काम हैं जिनके होने में देवों का धर्मानुराग
और भक्ति निमित्त नहीं है जो कि प्राकृतिक होते हैं उनका नियोग ही ऐसा है। जिस प्रकार यह प्राकृतिक नियम है कि एक अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी में २४ तीकर,१२ चक्रवर्ती,९ नारायण और ९प्रतिनारायण ही होंगे अधिक या कम नहीं, उसी प्रकार यह भी प्राकृतिक नियम है कि जिस समय भगवान का जन्म होगा उस समय अपने आप घण्टा