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तत्त्वार्थसूत्र
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[६. १. देवायु का आस्रव सातवें गुणस्थान तक सम्भव है, आगे नहीं, इसलिये आठवें गुणस्थान में उसका संवर कहा है।
निद्रा और प्रचला का आस्रव आठवें गुणस्थान के कुछ भाग तक सम्भव है। आगे इनका संवर हो जाता है।। . देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकांगोपांग, आहारकआंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलधु, उपघात, परघात, उछास, प्रशस्तविहायोगति, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, और तीर्थकर इनका आठवें गुणस्थान के कुछ और आगे के भागों तक आस्रव सम्भव है। आगे इनका संवर हो जाता है।
हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका आठवें गुणस्थान के अन्तिम भाग तक आस्रव होता है, इसलिये नौवें गुणस्थान में इनका संवर होता है।
नौवें गुणस्थान तक यथासम्भव पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ का आस्रव होता है, इसलिये आगे इनका संबर हो जाता है।
दसवें गुणस्थान तक पाँच ज्ञानावरण, शेष चार दर्शनावरण, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन १६ प्रकृतियों का आसव होता है इसलिये आगे के गुणस्थानों में इनका संवर कहा है।
केवल योग के निमित्त से बँधनेवाले सातावेदनीय का तेरहवें गुणस्थान तक आस्रव होता है इसलिये अयोगकेवली गुणस्थान में इसका संवर कहा है।
मिथ्यात्व गुणस्थान में आस्रव के सब निमित्त होते हैं। सासादन आदि में मिथ्यात्व निमित्त का अभाव हो जाता है। अविरति का अभाव छठे गुणस्थान से होता है। प्रमाद का अभाव सातवें गुण