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तत्त्वार्थसूत्र
[६. २१-२६ जिनकी वैयावृत्त्य की जाती है वे दस प्रकार के हैं। यथा--१ वैयावत्य के दस जिनका मुख्य काम व्रतों का पाचरण कराना
प्राचार्य कहलाते हैं। २ जिनसे मोक्षोपयोगी शास्त्रों का अभ्यास किया जाता है वे उपाध्याय कहलाते हैं। ३ जो महोपवास आदि बड़े और कठोर तप करते हैं वे तपस्वी हैं। ४ जो शिक्षा लेनेवाले हों वे शैक्ष हैं। ५ रोग आदि से जिन का शरीर क्लांत हो वे ग्लान हैं। ६ स्थविरों की सन्तति गण है। ७ दीक्षा देनेवाले आचार्य को शिष्य परम्परा कुल है। ८ जो चारों वर्ण के रहे हैं ऐसे श्रमणों का समुदाय संघ है। ९ जो चिरकाल से प्रव्रज्याधारी हों वे साधु हैं। १० जिनका जनता में विशेष आदर सत्कार होता है वे मनोज्ञ हैं। ये दस प्रकार के साधु हैं जिनकी शरीर द्वारा व अन्य प्रकार से वैयावृत्त्य करनी चाहिये ॥२४॥
१ ग्रन्थ, अर्थ या दोनों का निर्दोष रीति से पाठ लेना वाचना है। स्वाध्याय के पाँच भेट २ शङ्का को दूर करने के लिये या विशेष निर्णय करने
के लिये पृच्छा करना पृच्छना है। ३ पढ़े हुए पाठ का मन से अभ्यास करना अर्थात् उसका पुनः पुनः मन से विचार करते रहना अनुप्रेक्षा है। ४ जो पाठ पढ़ा है उसका शुद्धतापूर्वक पुनः पुनः उच्चारण करना आम्नाय है। ५धर्म कथा करनाधर्मोपदेश है ।।२५।।
शरीर आदि में अहंकार और ममकार भाव के होने पर उसका त्याग करना व्युत्सर्ग है। यह त्यागने योग्य वस्तु बाह्य और आभ्यन्तर व्युत्सर्ग के दो भेद
न के भेद से दो प्रकार की है। इससे व्युत्सर्ग भी दो
५ प्रकार का हो जाता है। जो मकान, खेत, धन और धान्य आदि जुदे हैं पर उनमें अपनी ममता बनी हुई है वे बाह्य उपधि हैं और आत्मा के परिणाम जो क्रोधादिक रूप होते हैं वे आभ्यन्तर उपधि हैं। व्युत्सग में इन दोनों प्रकार के उपाध-परिग्रहों का त्याग किया जाता है इसलिये व्युत्सर्ग दो प्रकार का है ॥२६॥