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तत्वार्थसूत्र
[४. २०.-२१ उन सबके रहने के स्थान अलग-अलग हैं यह पहले ही बतला पाये हैं यह भी उनके भेद का कारण है। इसके अतिरिक्त कुछ और बातें भी हैं जो उनमें हीनाधिक रूप में पाई जाती हैं। उनमें से पहले जिन बातों में नीचे नीचे के देवों से ऊपर ऊपर के देव अधिक होते हैं उनका निर्देश करते हैं। नीचे नीचे के देवों से ऊपर-ऊपर के देवों की स्थिति अधिक
अधिक होती है यह बात इसी अध्याय के उनतीसवें १ स्थिति
सूत्र से लेकर चौतीसवें सूत्र तक बतलाई है। शाप देने और उपकार करने का शक्ति प्रभाव है जो ऊपर-ऊपर
के देवों में श्राधिक-अधिक पाया जाता है। यद्यपि र प्रभाव यह बात ऐसी है तो भी ऊपर ऊपर अभिमान कम होने से वे उसका उपयोग करते हैं। इन्द्रियों के उनके विपयों का अनुभव करना सुख है। यद्यपि
ऊपर-ऊपर के देवों का नदी, पर्वत अटवी आदि २ सुख में विहार करना कमती-कमती होता जाता है। देवियों की संख्या व परिग्रह भी कमती-कमती होता जाता है तो भी उनकी मुग्न की मात्रा उत्तरोत्तर अधिक अधिक होती है। शरीर, वस्त्र और आभरण आदि की छटा द्यति है । ऊपर ऊपर के
व देवों का शरीर छोटा होता जाता है, वस्त्र और
चत आभरण भी कम कम होते जाते हैं पर इन सबकी दीप्ति उत्तरोत्तर अधिक अधिक होती जाती है। किस देव के कौन सी लेश्या है यह अगले बाईसवें सूत्र में
बतलाया है। उससे स्पष्ट हो जाता है कि ऊपर ऊपर '५ लेश्याविशुद्धि देवों की लेश्या निर्मल होती जाती है। इसी प्रकार समान लेश्यावालों में भी नीचे के देवों से ऊपर के देवों की लेश्या विशुद्ध होती है।