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४. २६-३२.] वैमानिकों की उत्कृष्ट स्थिति १६३ लाई जायगी इससे ज्ञात होता है कि यह उत्कृष्ट स्थिति है। पहले स्वर्ग में सामान्यतः उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम की हानी है। किन्तु घातायुष्क सम्यग्दृष्टि जीव यदि इन कल्पों में पैदा होता है तो उसकी स्थिति दो सागर से कुछ अधिक होती है, इसी से इन दोनों कल्पों की उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम से कुछ अधिक कही है।
शंका-घातायुष्क सम्यग्दृष्टि का क्या मतलब है ?
समाधान-जिसके देवायु का अधिक स्थिति बन्ध और पश्चात् संक्लेशरूप परिणामों से उसका स्थितिघात ये दोनों क्रियायें सम्यग्दर्शन के सद्भाव में होती हैं वह घातायुष्क सम्यग्दृष्टि कहलाता है। मतलब यह है कि जिस सम्यग्दृष्टि ने विशुद्ध परिणामों के निमित्त से देवायु का अधिक स्थिति बन्ध किया किन्तु पश्चात् परिणामों में संक्लेश बढ़ जाने से उस बाँधी हुई स्थिति का घात भी किया वह घातायुष्क सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
ऐसा जीव यदि प्रथम कल्प युगल में उत्पन्न होता है तो वहाँ उसको अन्तर्मुहूर्त कम ढाई सागरोपम तक उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है। आगे छठे कल्प युगल तक अपनी-अपनी स्थिति की यही व्यवस्था जानना चाहिये । क्योंकि घातायुष्क सम्यग्दृष्टि जीव वहीं तक उत्पन्न होता है। इस प्रकार दूसरे कल्प युगल में सात सागरोपम से कुछ अधिक, तीसरे कल्प युगल में दस सागरोपम से कुछ अधिक, चौथे कल्प युगल में चौदह सागरोपम से कुछ अधिक पाँचवें कल्प युगल में सोलह सागरोपम से कुछ अधिक और छठे कल्पयुगल में अठारह सागरोपम से कुछ अधिक उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है। षष्ठ कल्पयुगल से आगे अर्थात् तेरहवें आदि कल्प में घातायुष्क सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता इसलिये वहाँ कुछ अधिक स्थिति न कहकर पूरे सागरोपमों द्वारा स्थिति कही गई है । ३१ वें नम्बर के सूत्र में आये हुए 'तु' पद से यह विशेषता व्यक्त होती है।