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तत्त्वार्थसूत्र
[६.७. में परिभ्रमण करते हुए मैंने हजारों शरीर धारण किये पर मैं जहाँ का
. तहाँ हूँ। इस प्रकार जब कि मैं शरीर से ही अलग न्यवाद हूँ तब अन्य बाह्य पदार्थों से मैं अविभक्त कैसे हो सकता हूँ। इस प्रकार शरीर और बाह्य पदार्थों से अपने को भिन्न चिन्तवन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। ऐसा चिन्तवन करने से शरीर में स्पृहा नहीं होती किन्तु यह प्राणी तत्त्वज्ञान की भावना करता हुआ वैराग्य में अपने को जुटाता है जिससे मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है।
शरीर अत्यन्त अपवित्र है, यह शुक्र शोणित आदि सात धातुओं और मल-मूत्र आदि से भरा हुआ है। इससे निरन्तर मल झरता
रहता है। इसे चाहे जितना स्नान कराइये, सुगंधी अशुचि अनुभदा तेल का मालिश करिये, सुगन्धी उवटन लगाइए तो भी इसको अपवित्रता दूर नहीं की जा सकती। भला जिसका जो स्वभाव है वह कैसे दूर किया जा सकता है। वास्तव में देखा जाय तो इसके सम्पर्क से जीव भी अशुचि हो रहा है। यद्यपि जीव की अशुचिता सम्यग्दर्शनादि उत्तम गुणों की भावना से दूर की जा सकती है पर शरीर की अशुचिता तो कथमपि नहीं मेटी जा सकती। इस प्रकार से चिन्तवन करना अशुच्यनुप्रेक्षा है। ऐसा चिन्तवन करने से शरीर से वैराग्य होकर यह जीव संसारसमुद्र से पार होने के लिये प्रयत्न करता है।
इन्द्रिय, कषाय और अव्रत आदिक जो कि महानदी के प्रवाह के समान अति तीक्ष्ण हैं, उभयलोक में दुखदायी हैं। इन्द्रियविषयों की
. विनाशकारी लीला तो सर्वत्र ही प्रसिद्ध है । वनगज पासवानुपता कौआ. सर्प. पतंग और हरिण आदि इन्हीं के कारण विविध दुःख भोगते हैं। यही बात कषाय आदि की भी है, बाँधा जाना, मारा जाना, नाना दुःखों का भागी होना यह सब इन्हीं का फल है और इनके कारण परलोक में भी नाना दुःख उठाने पड़ते हैं,