________________
५२
तत्त्वार्थसूत्र
[ १.३०. समय बायोपशमिक अन्य ज्ञानों की प्राप्ति सम्भव नहीं। दो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं, क्योंकि एक तो ये दोनों नियत सहचारी हैं और दूसरे केवलज्ञान के प्राप्त होने के पहले सब संसारी जीवों के इनका पाया जाना निश्चित है। तीन मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान या मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान होते हैं, क्योंकि छमस्थ अवस्था में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तो नियम से होते हैं किन्तु इनके सिवा दो अन्य अपर्ण ज्ञानों का एक साथ या अकेले होना आवश्यक नहीं है, इसलिए उनमें से अपनी अपनी योग्य सामग्री के मिलने पर कोई एक ज्ञान भी हो सकता है। यदि अवधिज्ञान होता है तो मति, श्रुत और अवधि यह पहला विकल्प बन जाता है
और यदि मनःपर्ययज्ञान होता है तो मति, श्रत और मनःपर्यय यह दूसरा विकल्प बन जाता है। चार मतिज्ञान, श्रतज्ञान, अवधिज्ञान
और मानपर्ययज्ञान होते हैं। क्योंकि चारों क्षायोपशमिक ज्ञानों के एक साथ होने में कोई बाधा नहीं है। पर इन चार ज्ञानों के साथ या इनमें से किसी भी ज्ञान के साथ केवलज्ञान के नहीं हो सकने का कारण यह है कि वह पूर्ण ज्ञान है और शेष अपूर्ण ज्ञान हैं, इसलिये अपूर्ण ज्ञानों के साथ पूर्णज्ञान के होनेमें विरोध है।
शंका-प्रस्तुत सूत्र में जो एक से अधिक ज्ञानों का सम्भव एक साथ बतलाया सो किस अपेक्षा से बतलाया है ?
समाधान-क्षयोपशम की अपेक्षा से बतलाया है प्रवृत्ति की अपेक्षा से नहीं। आशय यह है कि एक साथ एक आत्मा में एकाधिक ज्ञाना वरण कर्मों का क्षयोपशम तो सम्भव है पर प्रवृत्ति एक काल में एक ज्ञान की ही होती है। जैसे प्रत्येक छमस्थ संसारी आत्मा के मति
और श्रुत ये दो ज्ञान नियम से पाये जाते हैं तथापि इनमें से जब किसी एक ज्ञान द्वारा आत्मा अपने विषय को जानने में प्रवृत्त होता है तव अन्य ज्ञान के मौजूद रहने पर भी वह उसके द्वारा विषयको