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६.७-९.] अधिकरण के भेद-प्रभेद
२८१ जिसमें पहला जीवाधिकरण संरम्भ, समारम्भ और प्रारम्भ के भेद से तीन प्रकार का; योगभेद से तीन प्रकार का; कृत, कारित और अनुमत के भेद से तीन प्रकार का तथा कपाय भेद से चार प्रकार का होता हुआ परस्पर मिलाने से १०८ भेदरूप है।। ___ तथा पर अर्थात् अजीवाधिकरण क्रम से दो भेद, चार भेद, दो भेद और तीन भेदवाले निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्गरूप है।
संसार चक्र जीव और अजीव के सम्बन्ध का फल है; शुभाशुभ कर्मों का बन्ध भी इन्हीं के निमित्त से होता है इसलिये आस्रव के अधिकरण जीव और अजीव बतलाये हैं। यहाँ अधिकरण से जीव और अजीव द्रव्य लिये हैं, तथापि वे विविध प्रकार की पर्यायों से आक्रान्त होते हैं, इसलिये पर्यायों के भेद से उनमें भेद होजाता है॥७॥
यहाँ समग्र जीवों की ऐसी अवस्थायें क्रोधकृत कायसंरम्भ आदि के भेद से १०८ बतलाई हैं। इन १०८ अवस्थाओं में से प्रत्येक सकषाय जीव किसी न किसी अवस्था से युक्त अवश्य होता है। प्रमादी जीव का प्राणों का वियोग करना आदि के लिये प्रयत्न का आवेश संरम्भ है। तात्पर्य यह है कि शुभाशुभ किसी भी कार्य के करने का संकल्प करना संरम्भ है। संकल्पित कार्य के लिये साधनों का जुटाना समारम्भ है
और उस कार्य को करने लगना आरम्भ है। कार्य तीन प्रकार के होते हैं-कायिक, वाचिक और मानसिक, इसलिये ये संरम्भादिक तीन उक्त तीनों कार्यों के भेद से नौ प्रकार के हो जाते हैं। ये नौ प्रकार के कार्य या तो स्वयं कृत होते हैं या अन्य से कराये जाते हैं या अनुमत होते हैं, इसलिये कृत, कारित और अनुमोदना के भेद से वे सत्ताईस प्रकार के हो जाते हैं। ये सत्ताईस भेद या तो क्रोध के विपय होते हैं, या मान के, या माया के, या लोभ के विषय होते हैं। इसलिये इन सन्ताईस भेदों को चार कषायों से गुणित करने पर कुल एक सौ आठ भेद