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३१४ तत्त्वार्थसूत्र
[७. ६-१२. हैं तथापि इन्हीं के अनुरूप अणुव्रतों की भी भावनायें होती हैं । अणुव्रतों से महाव्रतों का स्थान प्रथम है इसलिये भावनाओं के कथन में प्रमुखता से उन्हीं को स्थान दिया है ॥३-८॥
कुछ अन्य सामान्य भावनायें जिनसे उक्त व्रतों की पुष्टि हो-- हिंसादिष्विहामुत्रापायावधदर्शनम् ॥ ९॥ दुःखमेव वा ॥१०॥
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ॥११॥
जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥ १२ ।। हिंसा आदि पाँच दोषों में ऐहिक और पारलौकिक अपाय और अवद्य का दर्शन भावने योग्य है।
अथवा हिंसा आदिक दुःख हो हैं ऐसी भावना करनी चाहिये ।
प्राणीमात्र में मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में करुणावृत्ति और अविनेयों में माध्यस्थ भाव की भावना करनी चाहिये ।
संवेग और वैराग्य के लिये जगत के स्वभाव और शरीर के स्वभाव की भावना करनी चाहिये। ____ कोई भी प्राणी हिंसादि दोषों का त्याग तभी कर सकता है जब उनमें उसे अपना अहित दिखाई दे, क्योंकि जब तक यह न हो कि हिंसा आदिक दोष इसलोक और परलोक दोनों लोकों में अहितकर हैं
और निद्य हैं तब तक उनका त्याग नहीं किया जा सकता। इसीसे प्रस्तुत सूत्र द्वारा सूत्रकार ने हिंसादि दोषों में ऐहिक और पारलौकिक अपाय
और अवध के दर्शन करने की भावना का उपदेश दिया है। अपाय का अर्थ विनाश है और अवध का अर्थ निन्द्य है । जो प्राणी हिंसादि दोषों का सेवन करता है उसका यह लोक और परलोक दोनों बिगड़