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२.३१.-३५.] जन्म और योनि के भेद तथा उनके स्वामी ११३
जरायुज, अण्डज और पोत प्राणियों का गर्भ जन्म होता है। शेष सबका सम्मूच्छेन जन्म होता है।
पूर्व शरीर का त्याग कर नये शरीर का ग्रहण करना जन्म है। जब जीव की भुज्यमान आयु समाप्त हो जाती है तो वह नये भव को
. धारण करता है जिससे उसे जन्म लेना पड़ता है। जन्म के भेद
म क मद यहां इसी जन्म के भेद बतलाये हैं जो तीन हैंसम्मूर्छन, गर्भ और उपपाद । माता पिता की अपेक्षा किये बिना उत्पत्ति स्थान में औदारिक परमाणुओं को शरीर रूप परिणमाते हुए उत्पन्न होना सम्मूर्छन जन्म है । उत्पत्ति स्थान में स्थित माता-पिता के शुक्र और शोणित को शरीर रूप से परिणमाते हुए उत्पन्न होना गर्भ जन्म है। तथा उत्पत्ति स्थान में स्थित वैक्रियिक पुद्गलों को शरीर रूप से परिणमाते हुए उत्पन्न होना उपपाद जन्म है। इस प्रकार जन्म के भेद तीन हैं अधिक नहीं ॥ ३१ ॥ __जिस आधार में जीव जन्म लेता है उसे योनि कहते हैं। यहाँ आते ही जीव न्यूतन शरीर के लिये ग्रहण किये गये पुद्गलों में अनुप्रविष्ट
हो जाता है। और फिर उस शरीर की क्रमशः वृद्धि योनि के भेद है
मद और पुष्टि होने लगती है। इस योनि के नौ भेद हैंसचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत, सचित्ताचित्त, शीतोष्ण और संवृतविवृत ।
जो योनि जीव प्रदेशों से अधिष्ठित हो वह सचित्त योनि है। जो योनि जीवप्रदेशों से अधिष्ठित न हो वह अचित्त योनि है। जो योनि कुछ भाग में जीव प्रदेशों से अधिष्ठित हो और कुछ भाग में जीव प्रदेशों से अधिष्ठित न हो वह मिश्र योनि है। जिस योनि का स्पर्श शीत हो वह शीत योनि है। जिस योनि का स्पर्श उष्ण हो वह उष्ण योनि है। जिस योनि का कुछ भाग शीत हो और कुछ भाग उष्ण हो वह शीतोष्ण योनि है । जो योनि ढकी हो वह संवृत योनि है । जो