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सातवाँ अध्याय
आस्रव तत्त्व का व्याख्यान करते समय प्रारम्भ में ही यह कहा है कि शुभ योग से पुण्य कर्म का आस्रव होता है। अब देखना यह है कि वे कौन से शुभ कार्य हैं जिनसे पुण्य कर्म का आस्रव होता है ? इस अध्याय में इसी प्रश्न का उत्तर देने के लिये व्रत और दान का विशेषरूप से वर्णन किया गया है।
ब्रत का स्वरूप--- हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥ हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह से निवृत्त होना व्रत है।
हिंसा, असत्य आदि का स्वरूप इसी अध्याय में आगे बतलाया गया है। उसे समझ कर हिंसा और असत्य आदि रूप प्रवृत्ति जो कि अपने जीवन में घुल मिल गई है उसे बाहर निकाल फेकना और जीवन भर के लिये वैसा न करने का दृढ़ संकल्प कर लेना व्रत है। __ ये व्रत पाँच हैं-अहिसा, सत्य, आचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग । इन सब में अहिंसा व्रत प्रथम है क्योंकि खेत में उगे हुए धान्य की रक्षा के लिये जैसे वाड होती है वैसे ही अहिंसा व्रत के योग्यतापूर्वक पालने के लिये ये सत्यादिक व्रत माने गये हैं। यद्यपि एक अहिंसा व्रत को अच्छी तरह से पालने पर सत्यादिक सभी व्रत पल जाते हैं, इसलिये मूल में एक अहिंसा व्रत ही है तथापि सत्य 'आदि व्रतों के स्वीकार करने से अहिंसाव्रत की ही पुष्टि होती है इसलिये व्रतों का विभाग करके वे पाँच बतलाये गये हैं।
सूत्रकारने यहाँ व्रतका लक्षण निवृत्तिपरक किया है तथापि उन्होंने