Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 501
________________ ४४६ तत्त्वार्थसूत्र [५. ३७.४४ भी कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि इनमें से किसी एक शब्द के देने से दूसरे का काम चल जाता है ? समाधान-विविधता तो अधिकारी भेद से भी हो सकती है। पर यहां ध्यान के आलम्बनभूत विपय और योग की विविधता की दृष्टि से ये शब्द दिये गये हैं। पृथक्त्ववितक में विषय और योग दोनों में संक्रमण होता है पर एकत्ववितर्क में ऐसा नहीं होता। ___ जब सर्वज्ञ देव योग निरोध करते हुए दूसरे सब योगों का अभाव कर सूक्ष्म काययोग को प्राप्त होते हैं तब सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति र होता है । तब काय वर्गणाओं के निमित्त से आत्म प्रदेशों का अतिसूक्ष्म परिस्पन्द शेष रहता है इसलिये इसे सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ध्यान कहते हैं। किन्तु जब कायवर्गणाओं के निमित्त से होनेवाला आत्मप्रदेशों का अतिसूक्ष्म परिस्पन्द भी शेष नहीं रहता और आत्मा सर्वथा निष्प्रकम्प र हो जाता है तब व्युपरतक्रियानिवर्ति ध्यान होता है। "" उस समय किसी भी प्रकार का योग शेष न रहने के कारण इस ध्यान का उक्त नाम पड़ा है। इस ध्यान के होते ही साता वेदनीय कर्म का आस्रव रुक जाता है और अन्त में शेष रहे सब कर्म क्षीण हो जाने से मोक्ष प्राप्त होता है। ध्यान में स्थिरता मुख्य है । यद्यपि पिछले सब ध्यानों में ज्ञानधारा की आपेक्षिक स्थिरता ली गई है पर इन दो ध्यानों में श्रुतज्ञान न होने के कारण ज्ञानधारा को स्थिरता नहीं बन सकती, इसलिये क्रिया की स्थिरता और क्रिया के अभाव की एकरूपता की अपेक्षा से इन्हें ध्यान संज्ञा प्राप्त है ॥३५-४४॥

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