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३८२ तत्त्वार्थसूत्र
[८.५-१३. शंका-सुखका उपभोग कराना यदि साता वेदनीयका काम है तो आत्माका स्वभाव सुख नहीं प्राप्त होता ?
समाधान-सातावेदनीय के उदयके निमित्तसे प्राप्त होनेवाला सुख निराकुलता रूप आत्मसुख नहीं है किन्तु वह दुःखका उपशमरूप होनेसे सुख कहा गया है। इससे आत्माका स्वभाव सुख मानने में कोई वाधा नहीं आती। ___ शंका-शास्त्रोंमें कुछ लोग सातावेदनीयका कार्य सुखकी सामग्री
और असातावेदनीयका कार्य दुःखकी सामग्री प्राप्त कराना मानते हैं। यदि इस कथनको सही माना जाता है तो सातावेदनीय और असातावेदनीयके पूर्वोक्त लक्षण नहीं बनते, इसलिये यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि इनमें कौन लक्षण सही है ? . समाधान-कर्म दो प्रकारके हैं-जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी। जिनका फल जीवमें हो अर्थात् जिन कर्मोंका उदय जीवकी विविध अवस्थाओं और परिणामों के होने में निमित्त है वे जीवविपाकी कर्म हैं और जिन कर्मों का फल पुद्गलमें होता है । अर्थात् जिन कर्मोंका उद्य शरीर, वचन और मन रूप वर्गणाओंके सम्बन्धसे इन शरीरादिक रूप कार्यों के होने में निमित्त होता है वे पुद्गलविपाकी कर्म हैं । यत: वेदनीय कर्म जीवविपाकी है अतः वह जीवगत सुख दुख के होने में ही निमित्त होना चाहिये । सुख और दुःख ये जीवगत परिणाम हैं, इस लिये मुख्यतः सातावेदनीय और असातावेदनीय ये सुख और दुःख के होनेमें ही निमित्त प्राप्त होते हैं। . शंका-सुख और दुःखकी सामग्री प्राप्त कराना वेदनीय कर्मका कार्य है इस कथन को अनुचरित मानने में क्या आपत्ति है ?
सामग्रीके सद्भाव और असद्भावके साथ सुख और दुःखकी व्याप्ति घटित नहीं होती। सुख और दुःखकी सामग्री के रहने पर भी कदाचित् प्राणी को सुखी और दुःखी नहीं देखा जाता। इसी प्रकार सुख और दुःख