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३५८ तत्त्वार्थसूत्र
[७. २४-३७. में उपयोग करना सचित्तसम्बन्धाहार है । चींटी आदि क्षुद्र जन्तुओं से उपभोगपरिभोगवत
मिश्रित भोजन का आहार करना सचित्तसंमिश्राहार के अतीचार
' है। इन सचित्त आदि भोजनों में ब्रती श्रावक की
प्रवृत्ति प्रमाद और मोहवश होती है और इसीलिये ये अतिचारों में परिगणित किये गये हैं। आसव और अरिष्ट आदि मदजनक द्रव पदार्थों का और गरिष्ठ पदार्थों का सेवन करना अभिपवाहार है । अधपके, अधिक पके, ठीक तरह से नहीं पके हुए या जले भुने हुए भोजन का सेवन करना दुष्पक्वाहार है। ये उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत के पाँच अतीचार हैं।
शंका-उपभोग परिभोग में केवल भोजन सम्बन्धी पदार्थों का ग्रहण न होकर संवारी, वस्त्र, ताम्बूल, आभूषण आदि बहुत से पदार्थों का ग्रहण होता है फिर यहाँ केवल वे ही अतीचार क्यों गिनाये जिनका सम्बन्ध केवल भोजन से है ?
समाधान-उपभोग परिभोग में भोजन मुख्य है और अधिकतर गड़बड़ी भोजन में ही देखी जाती है, इसलिये यहाँ भोजन की प्रमुखता से अतीचार बतलाये हैं। वैसे तो जिन जिन दोषों से व्रत के दूपित होने की सम्भावना हो वे सभी अतीचार हैं।
खान पान की वस्तु संयत के काम न आ सके इस बुद्धि से उसे सचित्त पृथिवी, जल या वनस्पति के पत्तों पर रख देना सचित्तनिक्षेप
है। इसी प्रकार खान पान के योग्य वस्तु को सचित्त के अतीचार
' कमल पत्र आदि से ढक देना ताकि उसे संयत न ले "" सके सचित्तापिधान है। अपनी देय वस्तु को 'यह अन्य की है' ऐसा कह कर अर्पण करना परव्यपदेश है। दान देते हुए भी आदर भाव न रखना अथवा अन्य दाता के गुणों को न सह सकना मात्सर्य है। अतिथि को भोजन न कराना पड़े इस बुद्धि से भिक्षा के समय को टाल कर भोजन करना कालातिक्रम है। ये अतिथिसंविभाग व्रत के पाँच अतीचार हैं।
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