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तत्त्वार्थसूत्र [३. १-६. रहते हुए भी इन्हें परस्पर नारकियों के लड़ाने में ही आनन्द आता है। जब वे नारकी इनके इशारे पर अपना अपना वैर चितार कर
आपस में लड़ने लगते हैं, मारने पीटने लगते हैं तो ये बड़े प्रसन्न होते हैं। इस प्रकार मार काट में और उससे उत्पन्न हुए रख के सहन करने में नारकों का जीवन व्यतीत हो जाता है। वे बीच में उससे छुटकारा नहीं पा सकते, क्योंकि उनका अकाल मरण नहीं होता ॥ ५॥
चारों गतियों के जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट आयु बतलाई है। अपनी अपनी गति में जिससे कम न पाई जा सके वह जघन्य आयु
है और जिससे अधिक न पाई जा सके वह उत्कृष्ट नारका का आई आयु है। नारकियों की जघन्य आयु का कथन आगे करेंगे यहाँ उत्कृष्ठ आयु बतलाई गई है । पहली में एक, दूसरी में तीन, तीसरी में सात, चौथी में दस, पाँचवीं में सत्रह, छठी में बाईस और सातवीं में तेतीस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है ॥६॥
यहां तक सूत्रानुसार संक्षेप में अधोलोक का कथन समाप्त हुआ किन्तु प्रसंगानुसार यहां गति और आगति का कथन कर देना भी आवश्यक है।
सामान्य नियम यह है कि तिथंच और मनुष्य ही नरकों में उत्पन्न होते है। देव और नारक नरकों में नहीं उत्पन्न होते । उसमें भी
र असंज्ञी जीव पहली भूमि तक, सरीसृप दूसरी तक,
- पक्षी तीसरी तक, सर्प चौथी तक, सिंह पांचर्वी तक, खी छठी तक तथा मत्स्य और मनुष्य सातवीं तक जा सकते हैं। __ नारक मरकर नियम से कर्मभूमि के गर्भज तिर्यंच और मनुष्य ही होते हैं। उसमें भी प्रथम तीन भूमियों के नारक मरकर तीर्थकर
भी हो सकते हैं। चौथी भूमि तक के नारक मनुष्य श्रागति होकर निर्वाण भी पा सकते हैं। पाँचवीं भूमि तक
के नारक मरकर दूसरी पर्याय में संयमासंयम और संयम को भी प्राप्त कर सकते हैं। छठी भूमि तक के नारक मरकर