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११.२३.२४. ] मनः पर्ययज्ञान के भेद और उनका अन्तर ४७ भाव है। मनःपर्ययज्ञानी पहले मतिज्ञान द्वारा अन्य के मानस को ग्रहण करता है और तदनन्तर मनःपर्यय ज्ञान की अपने विषय में प्रवृत्ति होती है यह जो उक्त सूत्र में निर्देश किया है उससे भी उक्तः अभिप्राय की ही पुष्टि होती है।
इसके ऋजुमति और विपुलमति ये दो भेद हैं। जो ऋजु मन के द्वारा विचारे गये, ऋजु वचन के द्वारा कहे गये और ऋजु काय के द्वारा किये गये मनोगत विषय को जानता है वह ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान है । जो पदार्थ जिस रूप से स्थित है उसका उसी प्रकार चिन्तवन करनेवाले मन को ऋजुमन कहते हैं। जो पदार्थ जिस रूप से स्थित है उसका उसी रूप से कथन करनेवाले वचन को ऋजु वचन कहते हैं तथा जो पदार्थ जिस रूप से स्थित है उसे अभिनय द्वारा उसी प्रकार से दिखलाने वाले काय को ऋजुकाय कहते हैं। इस ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान की उत्पत्ति में इन्द्रिय और मन की अपेक्षा रहती है। ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी पहले मतिज्ञान के द्वारा दूसरे के अभिप्राय को जानकर अनन्तर मनःपर्यय ज्ञान के द्वारा दूसरे के मनमें स्थित उसका नाम, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवन, मरण, इष्ट अर्थ का समागम, अनिष्ट अर्थका वियोग, सुख, दुःख, नगर आदि की समृद्धि या विनाश आदि विषयों को जानता है। __तथा जो ऋजु और अनृजु दोनों प्रकार के मानसिक, वाचनिक
और कायिक मनोगत विषय को जानता है वह विपुलमति मनःपर्ययज्ञान है। इनमें से ऋजुमन, वचन और काय का अर्थ अभी पीछे कह आये हैं। तथा संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूफ मन, वचन और कायके व्यापार को अनृजु मन, वचन और काय कहते हैं। यहाँ आधे चिन्तवन या अचिन्तवन का नाम अनध्यवसाय है। दोलायमान चिन्तवन का नाम संशय है और विपरीत चिन्तवन का नाम विपर्यय है। विपुलमति वर्तमान में