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तत्त्वार्थसूत्र [७. २०-२२. है उसी प्रकार अगारी के परिपूर्ण व्रत के न होने पर भी वह व्रती कहा जाता है ॥ १६॥
__ अगारी वती का विशेष खुलासाअणुव्रतोऽगारी ॥२०॥
दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपोषधोपवासोपभोगपरि - भोगपरिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥ २१ ॥
मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता ।। २२ ॥ अणुव्रतों का धारी अगारी है।
वह अगारी दिग्विरतिव्रत, देशविरतिव्रत, अनर्थदण्डविरतिव्रत, सामायिकवत, प्रोषधोपवासव्रत, उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत और अतिथिसंविभागवत से भी सम्पन्न होता है।
तथा वह मारणान्तिक सल्लेखना का भी आराधक होता है।
पिछले सूत्र में व्रती के अगारी और अनगार ये दो भेद बतला आये हैं उनमें से अगारी का विशेष खुलासा करने के लिये प्रस्तुत सूत्रों की रचना हुई है।
जों अहिंसा आदि व्रतों को एकदेश पालता है ऐसा गृहस्थ अणुव्रतों का धारी श्रावक कहलाता है। इसके ये पाँचों अणुव्रत मूलबत कहलाते हैं, क्यों कि त्याग का प्रारम्भ इन्हीं से होता है। इसके सिवा इन व्रतों की रक्षा के लिये गृहस्थ दूसरे व्रतों को भी स्वीकार करता है जो उत्तर व्रत कहलाते हैं। वे संख्या में सात हैं। इस प्रकार इन व्रतों से सम्पन्न हो कर जो गृहस्थ अपने जीवन को व्यतीत करता है वह अपने जीवन के अन्तिम समय में एक व्रत को
और स्वीकार करता है जिसे सल्लेखना कहते हैं। इस प्रकार ये कुल व्रत हैं जिनसे गृहस्थ सुशोभित होता है। अब संक्षेप में इन व्रतों का स्वरूप बतलाते हैं जो निम्न प्रकार है।