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७६ तत्त्वार्थसूत्र
[२.१.-७. ____ आत्मा की दो अवस्थाएँ हैं संसागवस्था और मुक्तावस्था। इन दोनों प्रकार की अवस्थाओं में आत्मा की जो विविध पर्याय होती हैं उन सबको समसित करके यहाँ पाँच भागों में विभाजित किया गया है-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदायिक और पारिणामिक। ये ही आत्मा के स्वतत्त्व हैं, क्योंकि ये आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्य में नहीं पाये जाते । इन्हें भाव भी कहते हैं।
१ औपशमिक भाव-जिस भाव के होने में कर्म का उपशम निमित्त है वह औपशमिक भाव है। कर्म की अवस्था विशेपका नाम उपशम है। जैसे कतकादि द्रव्य के निमित्त से जल में से मल एक ओर हट जाता है वैसे ही परिणाम विशेष के कारण विवक्षित काल के कर्मनिपेकों का अन्तर होकर उस कर्म का उपशम हो जाता है जिससे उस काल के भीतर आत्माका निर्मल भाव प्रकट होता है। यतः यह भाव कर्म के उपशम से होता है इसलिए इसे औपशमिक भाव कहते हैं। __ २ क्षायिक भाव-जिस भाव के होने में कर्म का क्षय निमित्त है वह क्षायिक भाव है। जैसे जलमें से मलके निकाल देने पर जल सर्वथा स्वच्छ हो जाता है वैसे ही आत्मा से लगे हुए कर्म के सर्वथा दूर हो जाने पर आत्मा का निर्मल भाव प्रकट होता है । यतः यह भाव कर्म के सर्वथा क्षय से होता है इसलिये इसे क्षायिक भाव कहते हैं।
. ३ क्षायोपशमिक भाव-जिस भाव के होने में कर्म का क्षयोपशम निमित्त है वहाक्षायोपशमिक भाव है। जैसे जल में से कुछ मल के निकल जाने पर और कुछ के बने रहने पर जल में मल की क्षीणाक्षीण वृत्ति देखी जाती है जिससे जल पूरा निर्मल न होकर समल बना रहता है। वैसे ही आत्मा से लगे हुए कर्म के क्षयोपशम के होने पर जो भाव प्रकट होता है उसे क्षायोपशमिक भाव कहते हैं।