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३. ३७.]
कर्मभूमि विभाग
१६३ वह उपपाद क्षेत्र को प्राप्त होने के पूर्व तक मनुष्य लोक के बाहर पाया जाता है।
(३) केवजी जिनके प्रदेश समुद्घात के समय क्रम से सर्वलोक में व्याप्त हो जाते हैं इस प्रकर केवलिसमुद्घात के समय मनुष्य ढाई द्वीप के बाहर पाया जाता है। __ ये तीन अवस्थाएँ हैं जब मनुष्य मनुष्य लोक के बाहर पाये जात हैं इन अवस्थाओं को छोड़कर मनुष्यों का मनुष्य लोक से बाहर पाया जाना सम्भव नहीं है ।। ३५॥ ___ मनुष्य मुख्यतः दो भागों में बटे हुए हैं आर्य मनुष्य और म्लेच्छ मनुष्य । जो स्वयं गुणवाले हैं और गुणवालों की संगत करते हैं वे
र आर्य मनुष्य हैं और शेष म्लेच्छ मनुष्य हैं। म्लेच्छ माया मदक ये प्रायः गुण कर्म से हीन होते हैं। इनमें यदि दया दाक्षिण्य आदि गुण पाये भी जाते हैं तो लौकिक प्रयोजन वश ही पाये जाते हैं । आत्मा का कर्तव्य समझ कर ये इन गुणों को महत्त्व नहीं देते। आर्यों के मुख्य दो भेद हैं ऋद्धि प्राप्त आर्य और ऋद्धि रहित
आर्य । जिनके तप आदिक से बुद्धि आदिक ऋद्धियाँ उत्पन्न हो जाती हैं वे ऋद्धिप्राप्त आर्य हैं। ऋद्धि रहित आर्य निमित्त भेद से पाँच प्रकार के बतलाये हैं-क्षेत्रार्य, जात्यार्य, चारित्रार्य, कार्य और दर्शनार्य । म्लेच्छ मुख्यतया धर्म कर्म व्यवस्था से रहित होते हैं, इसी से ये म्लेच्छ कहलाते हैं। ये अन्तर्वीप्रज और कर्मभूमिज इस प्रकार दो तरह के होते हैं। लवणसमुद्र और कालोद समुद्र के मध्य में स्थित अन्तर्वीपों में निवास करनेवाले कुभोगभूनिज मनुष्य अन्तीपज म्लेच्छ हैं तथा कर्मभूमि में पैदा हुए आर्यसंस्कृति से हीन मनुष्य कर्मभूमिज म्लेच्छ है ॥ ३६॥
कर्मभूमि विभागभरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरुत्तरकुरुभ्यः ॥३७॥