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१२६ तत्त्वार्थसूत्र
[२.५०.५२. समाधान-प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही उत्पन्न होता है और समाप्त भी इसी गुणस्थान में होता है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति के जो कारण बतलाये हैं वे प्रमत्तसंयत मुनि के ही सम्भव हैं।
शंका-वे कौन से कारण हैं जिनके निमित्त से आहारक शरीर पैदा होता है ?
समाधान-एक तो जब मुनि को किसी सूक्ष्म विषय में सन्देह होता है तब उस सन्देह को दूर करने के लिये आहारक शरीर पैदा होता है। दूसरे किसी काम के लिये गमनागमन करने से असंयम की बहुलता दिखे पर उसका किया जाना आवश्यक हो तो इस निमित्त से भी आहारक शरीर उत्पन्न होता है। उदाहरणार्थ तीर्थंकरके दीक्षा आदि कल्याणकों में सम्मिलित होना और अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना करना। यह शरीर हस्तप्रमाण होता है। उत्तम अंग अर्थात् मस्तक से पैदा होता है। शुभ कर्म का कारण होने से शुभ होता है, पुण्यकर्म का फल होने से विशुद्ध होता है और न किसी से रुकता है और न किसी को रोकता है इसलिये अव्याघाती होता है। प्रमत्तसंयत मुनि ऐसे शरीर से दूसरे क्षेत्र में जाकर और शंका का निवारण कर या वन्दना कर फिर अपने स्थान पर आ जाते हैं। इसमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता हैं ॥४५-४९॥ वेदों के स्वामीनारकसम्सूच्छिनो नपुंसकानि ॥ ५० ॥ न देवाः ॥५१॥ शेषास्त्रिवेदाः ॥ ५२ ॥ नारक और संमूर्च्छन जन्मवाले जीव नपुंसक ही होते हैं। देव नपुंसक नहीं होते। * श्वेताम्बर परस्परा में इसे सूत्र नहीं माना ।