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तत्त्वार्थसूत्र
[१.२५. चिन्तवन किये गये विषय को तो जानता ही है पर चिन्तवन करके भूले हुए विषय को भी जानता है। जिसका आगे चिन्तवन किया जायगा उसे भी जानता है। यह विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी भी भतिज्ञान से दूसरे के मानस को अथवा मतिज्ञान के विषय को ग्रहण करके अनन्तर ही मनःपर्ययज्ञान से जानता है।
ऋजुमती और विपुलमति इन दोनों में विपुलमति विशुद्धतर है; क्योंकि वह ऋजुमति की अपेक्षा सूक्ष्मतर और अधिक विषय को जानता है। इसके सिवा दोनों में यह भी अन्तर है कि ऋजुमति उत्पन्न होने के बाद कदाचित् नष्ट भी हो जाता है; क्योंकि ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी के मोक्ष जानेका नियम नहीं है। पर विपुलमति लष्ट नहीं होता, वह केवलज्ञान की प्राप्तिपर्यन्त अवश्य बना रहता है ।। २३-२४ ॥
अवधि और मनःपर्यय का अन्तरविशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्यययोः ॥२५॥ ... विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय इनकी अपेक्षा अवधिज्ञान और मनापर्ययज्ञानमें अन्तर है।
पहले अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान का वर्णन कर आये हैं पर 'उससे इन दोनों का अन्तर नहीं ज्ञात होता । जिसका ज्ञात होना अत्यन्त आवश्यक है, अतः इसी बातको बतलाने के लिये प्रस्तुत सूत्र की रचना हुई है। इन दोनों ज्ञानों में जो क्षयोपशम आदि की अपेक्षा से अन्तर है वह निन्न चार बातों से जाना जाता है--विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय । खुलासा इस प्रकार है-१ अवधि ज्ञानके विषय से मनःपर्यय ज्ञानका विषय सूक्ष्म है। २-अवधि ज्ञान का क्षेत्र, अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर असंख्यात लोक प्रमाण तक है और मनःपर्ययज्ञान का क्षेत्र सिर्फ मनुष्य लोकपर्यन्त ही है। ३-अवधि ज्ञान के स्वामी चारों गति के जीव हो सकते हैं पर मनः