Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 496
________________ ध्यान का निरूपण रौद्र ध्यान का निरूपण हिंसा नृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ३५ हिंसा, असत्य, चोरी और विषयसंरक्षण के लिये सतत चिन्ता करना रौद्रध्यान है । वह अविरत और देशविरत में सम्भव है । यहाँ निमित्त की अपेक्षा रौद्रध्यान के भेद और उनके स्वामी बतलाये गये हैं । यह पहले ही बतला आये हैं कि रौद्रध्यान का मूल आधार क्रूरता है । यहाँ उस क्रूरता के जनक हिंसा, असत्य, चोरी और विपयसंरक्षण ये चार निर्मित्त लिये गये हैं इसलिये रौद्रध्यान के चार भेद हो जाते हैं - हिंसानन्दी, मृपानन्दी, चौर्यानन्दी और परि ९. ३५-३६. ] ४४१ नन्दी | इनका अर्थ इन नामों पर से ही स्पष्ट है। यह ध्यान प्रारम्भ के पाँच गुणस्थान तक सम्भव है । देशविरत के भी कदाचित् परिग्रह की रक्षा आदि निमित्त से परिणामों में तीन कलुपता उत्पन्न हो जाती है, इसलिये देशविरत गुणस्थान तक इस ध्यान का सद्भाव बतलाया है ।। ३५ ।। धर्म्यध्यान का निरूपण- आज्ञापायविपाक संस्थानविचयाय धर्म्यम् ९ ॥ ३६ ॥ आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान इनकी विचारणा के निमित्त मन को एकाम करना धर्म्यध्यान है । यहाँ निमित्तभेद से धयध्यान के चार भेद हैं । १ किसी भी पदार्थ का विचार करते समय ऐसा मनन करना कि इस विषय में जो जिन देव ज्ञा है वह प्रमाण है आज्ञाविचय धर्म्यध्यान है । २ जो सन्भाग पर न होकर मिथ्या मार्ग पर स्थित हैं उनका मिथ्यामार्ग से छुटकारा १ श्वेताम्बर परम्परा में 'धम्यम्' के स्थान में 'धर्ममप्रमत्तसंयतस्य' सूत्र पाठ है। तथा इसके श्रागे 'उपशान्त क्षीणकपाययोक्ष' अतिरिक्त सूत्र है ।

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