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२४० तत्त्वार्थसूत्र
[५. २६-२७. (३) तथा जब किसी एक स्कन्ध के टूटने पर टूटे हुए अवयव के साथ उसी समय अन्य स्कन्ध मिलकर नया स्कन्ध बनता है तब यह स्कन्ध भेद-संघातजन्य कहलाता है। जैसे टायर में छिद्र होने पर टायर से निकली हुई वायु उसी क्षण बाहर की वायु में जा मिलती है। यहाँ एक ही काल में भेद और संघात दोनों हैं। बाहर निकलनेवाली बायु का टायर के भीतर की वायु से भेद है और बाहर की वायु से संघात, इसलिये भेद और संघात से स्कन्ध की उत्पत्ति होती है यह कहा है। ये भेद-संघातजन्य स्कन्ध भी द्वयणुक से लेकर अनन्ताणुक तक हो सकते हैं।
भेद, संघात और भेद-संघात के ये स्थूल उदाहरण है।
इसकी विशेष जानकारी के लिये षट्खण्डागम और उसकी धवला टीका देखनी चाहिये । वहाँ बतलाया है कि द्वथणुक वर्गणा की ‘उत्पत्ति तीन प्रकार से होती है-भेद से, सङ्घात से और भेद-सङ्घात से । आगे की वर्गणाओं के भेद से इसकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिये तो भेद से इसकी उत्पत्ति कही है, दो अणुओं के सङ्घात से इसकी उत्पत्ति होती है इसलिये सङ्घात से इसकी उत्पत्ति कही है तथा दो द्वथणुक भेद को प्राप्त होकर पुनः द्वथणुक अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं इसलिये स्वस्थान की अपेक्षा भेद-सङ्घात से इसकी उत्पत्ति कही है। ज्यणुक, चतुरणुक, संख्याताणुक, असंख्याताणुक, अनन्ताणुक,
आहार वर्गणा, अग्राह्य वर्गणा, तैजस वर्गणा, अग्राह्य वर्गणा, भाषा वर्गणा, अग्राह्य वर्गणा, मनोवर्गणा, अग्राह्य वर्गणा, कार्मण वर्गणा
और ध्रुव वर्गणा की उत्पत्ति भी ऐसे ही तीन प्रकार से होती हैं। सान्तर निरन्तर वर्गणा, प्रत्येकशरीर वर्गणा, बादरनिगोद वर्गणा, सूक्ष्मनिगोद वर्गणा और महास्कन्ध वर्गणा स्वस्थान की अपेक्षा भेदसङ्घात से उत्पन्न होती हैं।