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७. २४-३७.] व्रत और शील के अतीचार
अभिप्रायपूर्वक लिये गये नियम को व्रत कहते हैं। यद्यपि व्रत का यह लक्षण श्रावक के सभी व्रतों में पाया जाता है तथापि अहिंसा आदि पाँच को व्रत और दिग्विरति आदि सात को शील कहने का कारण यह है कि अहिंसा आदि पाँच मूलभूत व्रत हैं इसलिये ये व्रत शब्द द्वारा कहे गये हैं और दिग्विरति आदि सात इन व्रतों की रक्षा के लिये हैं इसलिये ये शील शब्द द्वारा कहे गये हैं। यहाँ इन सभी व्रतों और शीलों के पाँच पाँच अतीचार गिनाये हैं। अतीचार यद्यपि न्यूनाधिक भी हो सकते हैं तथापि मध्यम परिमाण की दृष्टि से सब के पाँच पाँच अतीचार बतलाये हैं जिनका खुलासा इस प्रकार है
किसी भी प्राणी को इस प्रकार बाँधकर या रोककर रखना जिससे वह अभिमत देश में न जा सके बन्ध है। डण्डा, चावुक या बेत आदि अहिंसाणुव्रत के के से प्रहार करना वध है। कान, नाक आदि अवयवों
" का छेदना छेद है। शक्ति और मर्यादा का विचार अतीचार
न करके अधिक बोझा लादना अतिभारारोपण है। खानपान में रुकावट डालना या समय पर न देना अन्नपाननिरोध है। अहिंसाणुव्रतधारी श्रावक को इन दोषों से सदा बचते रहना चाहिये, क्योंकि इन दोषों के सेवन करने से अहिंसोणुव्रत मलिन होता है । यदा कदाचित् कर्तव्यवश इनका सेवन करना भी पड़े तो कोमल भाव से काम लेना चाहिये, दुर्भाव से तो इनका कभी भी सेवन न करे।
सन्मार्ग में लगे हुए किसी को भ्रमवश अन्य मार्ग पर ले जाने का उपदेश करना मिथ्योपदेश है। जैसे किसी ने आलू आदि जमीकन्द सत्याणुवत के
र खाने का त्याग कर रखा है पर उसे यह समझा अतीचार
कर कि आलू आदि अनन्तकाय नहीं हैं, उनके खाने
में पुनः प्रवृत्त करना मिथ्योपदेश है। यदि ऐसा उपदेश नासमझो से दिया जाता है तो वह अतीचार है और जानबूझ कर
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