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तत्त्वार्थसूत्र
[७. १९. श्यक है तभी व्रताचरण में ठीक तरह से प्रवृत्ति हो सकती है, इसीलिये यहाँ व्रती होने के लिये शल्यों का त्याग करना आवश्यक बतलाया गया है। वे शल्य तीन है-मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य । व्रतों के पालन करने में कपट, ढोंग अथवा ठगने की वृत्ति का बने रहना माया शल्य है। व्रतों के फलस्वरूप भोगों की लालसा रखना निदानशल्य है और व्रतों का पालन करते हुए भी सत्य पर श्रद्धा न लाना अथवा असत्य का आग्रह रखना मिथ्यादर्शनशल्य है। इन तीन शल्यों के रहते हुए कोई भी प्राणी व्रतों को अपने जीवन में नहीं उतार पाता, वे केवल उसके लिये आडम्बरमात्र बने रहते हैं, इसलिये व्रती होने के लिये व्रतों को स्वीकार करने के साथ शल्यों का त्याग करना भी आवश्यक है यह इस सूत्र का तात्पर्य है ॥ १८ ॥
वती के भेदअगार्यनगारश्च ॥ १९॥ उसके ( व्रती के ) अगारी और अनगार ये दो भेद हैं।
पहले व्रत के दो भेद बतला आये हैं-अणुव्रत और महाव्रत । इसी हिसाब से यहाँ व्रती के दो भेद किये गये हैं अगारी और अनगार । यद्यपि अगार का अर्थ घर है, इसलिये अगारी का अर्थ घर वाला होता है। किन्तु यहाँ अगार शब्द सकल परिग्रह का उपलक्षण है जिससे यह अर्थ होता है कि जिसने परिग्रह का पूरी तरह से त्याग नहीं किया है वह अगारी है। अगारी अर्थात् गृहस्थ । तथा जिसने घर अर्थात् सकल परिग्रह का पूरी तरह से त्याग कर दिया है वह अनगार है । अनगार अर्थात् मुनि ।
शंका-बहुत से गृहस्थ घर से ममत्व परिणाम का त्याग किये बिना घर छोड़कर वन में निवास करने लगते हैं और बहुत से मुनि