Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 483
________________ पसूत्र ४२८ तत्त्वार्थसूत्र [९.८-१७. की अपेक्षा यहाँ परीपहों का उपचार से निर्देश किया गया है। वैसे तो उन्हें सातिशय शरीर और अनन्त सुख की प्राप्ति हो जाने से उनके क्षुधा तृपा आदि परीपहों की सम्भावना ही नहीं है। हम संसारी जनों के शरीर के समान केवली जिनके शरीर में त्रस और स्थावर जीव नहीं पाये जाते । केवलज्ञान के प्राप्त होते ही उनका शरीर परम औदारिक हो जाता है, उसमें मल मूत्र आदि कोई दोष नहीं रहते। ऐसी हालत में उनके क्षुधा, पिपासा आदि की बाधा मानना नितान्त असम्भव है। तत्त्वतः परीषह व्यवहार तो छठे गुणस्थान तक ही सम्भव है। अगले गुणस्थान ध्यान के होने से उनमें कारणों के सद्भाव की अपेक्षा से परीपह व्यवहार किया जाता है, इसलिये केवली जिनके क्षुधा आदि ग्यारह परीषह नहीं होते यह समझना चाहिये । इसी श्राशय को व्यक्त करने के लिये 'एकादश जिने' इस सूत्र में 'न सन्ति' इस पद का अध्याहार करके 'केवलो' जिनके ग्यारह परीषह नहीं हैं,यह दूसरा अर्थ किया जाता है। किन्तु बादरसाम्पराय जीव के सब परीषहों का पाया जाना सम्भव है, क्योंकि यहाँ सभी परीषहों के कारणभूत कर्मों का सद्भाव पाया जाता है। बादरसाम्पराय से यहाँ प्रमत्तसंयत से लेकर नौवें गुणस्थान तक के गुणस्थान लेने चाहिये। शंका-प्रदर्शन परीषह का कारण दर्शनमोहनीय का उदय बतलाया है। दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैं मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व सो इनमें से सम्यक्त्वप्रकृति का उदय सातवें तक पाया जा सकता है, इस लिये अदर्शन परीषह को सम्भावना सातवें तक मान भी ली जावे तब भी आठवें व नौवें गुणस्थान में इसकी किसी भी हालत में सम्भावना नहीं है फिर यहाँ नौवें गुणस्थान तक बाईस परीषह क्यों कहे ? समाधान-सूत्र में बादरसाम्पराय पद है और बादरसाम्पराय

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