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३१८ तत्त्वार्थसूत्र
[७. १३. आदि उस विकार के बाहरी रूप हैं और आत्मोन्नति या आत्मोन्नति के साधनों से विमुख होकर रागद्वष रूप परिणति का होना उसका आभ्यन्तर रूप है। ऐसे विकार भाव से आत्मगुणों का हनन होता है इसलिये तत्त्वतः इसी का नाम हिंसा है।
मुख्यतया प्रत्येक की दृष्टि अपने जीवन के संशोधन की न होकर बाहर की ओर जाती है। वह इतना ही विचार करता है कि मैंने अन्य जीवों पर दया की, उन्हें नहीं मारा तो मेरे द्वारा अहिंसा का पालन हो गया। वह अपने जीवन का रंचमात्र भी संशोधन नहीं करता, भीतर छिपे हुए विकार भाव को नहीं देखता। इससे वह हिंसा को करते हुए भी अपने को अहिंसक समझ बैठता है। जगत् में जो विशृंखलता फैली हुई है वह इसका प्रांजल उदाहरण है। तत्त्वतः भूल कहाँ हो रही है। उसकी खोज होनी चाहिये। इसके बिना हिंसा से अपनी रक्षा नहीं हो सकती और न अहिंसा का मर्म ही समझ में आ सकता है।
मनुष्य के जीवन में यह सबसे बड़ी भूल है जिससे वह ऐसा मान बैठा है कि दूसरे का हिताहित करना मेरे हाथ में हैं। जिसने जितने जीजन की सबसे अधिक बाहरी साधनों का संचय कर लिया है वह
'उतना अधिक अपने को शक्तिमान् अनुभव करता भूल ही हिंसा का
" है। साम्राज्य लिप्सा, पूँजीवाद, वर्गवाद और
• संस्थावाद इसका परिणाम है। ईश्वरवाद को इसी मनोवृत्ति ने जन्म दिया है। जगत् में बाहरी विषमता का बीज यही है। अतीत काल में जो संघर्ष हुए या वर्तमान में जो भी संघर्ष हो रहे हैं उन सबका कारण यही है। जब मनुष्य अपने जीवन में इस तत्त्वज्ञान को स्वीकार कर लेता है कि अन्य से अन्य का हित या अहित होता है तब उसकी अन्तर्मुखी दृष्टि फिर कर बहिर्मुखी हो जाती है। वह बाह्य साधनों के जुटाने में लग जाता है। उनके जुटाने में सफल होने पर उसे अपनी सफलता मानता है। जीवन में बाह्य साधनों को स्थान नहीं है