Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 493
________________ स्वरूप ४३८ तत्त्वार्थसूत्र [ ६. २७. चित्त को अनवस्थित स्वभाव वतलाया है। वह एक विषय पर चिरकाल तक टिकता ही नहीं, क्षण क्षण में बदलता रहता है। और यह बदलने का क्रम कभी कभी तो बुद्धिपूर्वक होता न है अर्थात् चित्त को बलात् अन्य विषय से हटाकर विवक्षित विषय में लगाया जाता है और कभी कभी अबुद्धिपूर्वक भी होता है , अर्थात् स्वभावतः मन एक विपय पर न टिककर बिना प्रयोजन के ही दुनिया की बातें सोचा करता है। पर चित्त की इस प्रवृत्ति से लाभ नहीं, अतः बड़े प्रयत्न के साथ उसे अन्य अशेप विपयों से हटाकर किसी एक उपयोगी विषय में स्थिर रखना ही ध्यान है। चित्त छद्मस्थ जीव के ही पाया जाता है, क्योंकि क्षायोपशमिक ज्ञान का सद्भाव वहीं तक बतलाया है, इसलिये वास्तव में ध्यान बारहवें गुणस्थान तक ही होता है। तेरहवें व चौदहवें गुणस्थान में ध्यान का उल्लेख केवल उपचार से किया है। कोई भी ध्यान अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहता है इसके बाद चित्तवृत्ति की धारा ही बदल जाती है, अतः ध्यान का ___ काल अन्तमुहूते से अधिक नहीं बनता है। लोक में जो प्राणायाम द्वारा बहुत बड़े काल तक समाधि साधने की बातें सुनने में आती हैं सो वास्तव में ऐसी समाधि ध्यान नहीं है । इससे शरीरातिशयों की प्राप्ति भले ही हो जाय पर आत्मशुद्धि नहीं होती, क्योंकि ऐसी समाधि एक प्रकार की बेहोशी ही है जिसमें सुषुप्ति के समान मन काम नहीं करता । पुराण ग्रन्थों में भी 'बाहुवलि ने एक वर्ष तक लगातार ध्यान किया' इत्यादि उल्लेख आते हैं सो उनका अभिप्राय इतना ही है कि इतने दिन उनकी बाह्य प्रवृत्ति बन्द रही। मानसिक वृत्ति में उनके भी अन्तर्मुहूर्त के बाद निरन्तर बदल होता रहा है॥२७॥

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