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७. २३.] सम्यग्दर्शन के अतीचार
३४७ इस प्रकार है या नहीं' शङ्का अतीचार है। ऐसे जीव के धर्म के त्यागने की तो इच्छा नहीं होती बल्कि उसके स्वीकार करे रहने में अनेक गुण दिखाई देते हैं, इसलिये तो सम्यग्दर्शन का मूलोच्छेद नहीं हुआ किन्तु धर्म के जो मूलाधार हैं उनके विषय में शंका उत्पन्न हो गई, इसलिये यह सम्यग्दर्शन का शंका नाम का अतीचार हुआ। यद्यपि तत्त्वज्ञान में परीक्षा द्वारा किसी वस्तु के निर्णय करने का पूरा अवसर है तथापि केवल युक्तिद्वारा ही प्रत्येक वस्तु के निर्णय करने का प्रयत्न करना और अनुभव तथा आगम को प्रधानता न देना इष्ट नहीं यह इसका तात्पर्य है। साधक प्रत्येक पदार्थ के निर्णय में तकका सहारा तो लेता ही है पर जो पदार्थ केवल श्रद्धागम्य हैं वहाँ वह तर्क को प्रमुखता नहीं देता किन्तु श्रद्धा के आधार से जीवन के निर्माण में लग जाता है। फिर इसे उद्दिष्ट पथ से भ्रष्ट करनेवाला किसी का भय, नहीं रहता । वह निर्भय होकर अपने सुनिश्चित मार्ग पर अग्रेसर होता जाता है।
२-ऐहिक और पारलौकिक विषयों की अभिलाषा करना कांक्षा अतोचार है। यद्यपि धर्म का मुख्यफल आत्मशुद्धि है और धर्म का सेवन करते हुए साधक की दृष्टि सदा इसी पर रहनी चाहिये, किन्तु धर्माचरण करते हुए उससे सांसारिक विषयों की वांछा करना उद्देश्य भ्रष्ट होना है, इसलिये सस्यग्दर्शन का दूसरा अतीचार कांक्षा माना गया है।
३---विचकित्सा का अर्थ कुचोद्य करना है । मतभेद या विचारभेद का प्रसंग उपस्थित होने पर आगम प्रमाण के आधार से बुद्धिगम्य या तर्कसिद्ध बात को न मानकर अपनी जिद पर कायम रहना और उत्तरोत्तर कुचोद्य करते जाना विचिकित्सा है। या आप्त, आगम, पदार्थ और संयमके आधार के विषयमें जुगुप्सा करना विचिकित्सा है। इस दोष के कारण उत्तरोत्तर असत्य का आग्रह बढ़ता जाता है और