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साम्परायिक कर्मास्रव के भेद
२७७ १-क्रोध के श्रावेश से होनेवाली प्रादोषकी क्रिया है। २-दुष्टभाव युक्त होकर किसी काम के लिये प्रयत्न करना कायिकी क्रिया है। ३-हिंसा के कारणभूत उपकरणों का ग्रहण करना प्राधिकरणिकी क्रिया है। ४-प्राणियों को दुःख उत्पन्न करनेवाली पारितापिकी क्रिया है। ५-आयु, इन्द्रिय, बल और प्राणों का वियोग करनेवाली प्राणातिपातिकी क्रिया है।
१-रागवश रमणीय रूप के देखने का अभिप्राय रखना दर्शन क्रिया है। २-प्रमादवश होकर स्पर्श करने योग्य वस्तुओं के स्पर्श करने
की वृन्ति स्पर्शन क्रिया है। ३-नये नये शस्त्रों को बनाना प्रात्ययिकी क्रिया है। ४-स्त्री, पुरुप और पशुओं के जाने, आने और रहने के स्थान में मल मूत्र आदि का त्याग करना समन्तानुपातन क्रिया है। ५-अनवलोकित और अप्रमार्जित भूमि पर शरीर आदि का रखना अनाभोग क्रिया है।
१-दूसरे के करने योग्य क्रिया को स्वयं कर लेना स्वहस्त क्रिया है। २-पापादान आदि प्रवृत्ति विशेष के लिये स्वीकारता देना निसर्ग क्रिया है । ३-दूसरे ने जो सावध कार्य किया हो उसे प्रकाशित कर देना विदारण क्रिया है। ४-चारित्र सोहनीय के उदय से शास्त्रोक्त क्रिया को पालन न कर सकने के कारण उसका विपरीत कथन करना
आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है । ५-धूर्तता और आलस्य के कारण शास्त्रोक्त विधि के पालन करने में अनादर करना अनाकांक्षा क्रिया है।
१-छेदना, भेदना और मारना आदि क्रियाओं में स्वयं रत रहना और दूसरों के द्वारा वैसा करने पर आनन्द मानना प्रारम्भ क्रिया है। २-परिग्रह का नाश न होने के लिये किया जानेवाला प्रयत्न पापियाहिकी क्रिया है। ३-ज्ञान और दर्शन आदि के विपय में छलपूर्ण व्यवहार करना माया क्रिया है। ४-मिथ्यादर्शन क्रिया के अनुकूल सामग्री जोड़ने में जो जुटा है उसको 'तू ठोक करता है' इत्यादि कह