Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 507
________________ दसवाँ अध्याय अब तक छह तत्त्वों का निरूपण किया जा चुका है अब केवल मोक्ष तत्त्व का निरूपण बाकी है जो इस अध्याय में किया गया है। केवलज्ञ न की उत्पत्ति में हेतुमोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलम् ॥ १ ॥ मोह के क्षय से और ज्ञानावरण, दशनावरण तथा अन्तराय के क्षय से केवल ज्ञान प्रकट होता है। ___ परमात्मा अर्थात् परम विशुद्धि को प्राप्र हुए आत्मा दो तरह के होते हैं-सकल परमात्मा और निकल परमात्मा। कल का अर्थ शरीर है । जो कल अर्थात् शरीर सहित होकर भी परमात्म पद को प्राप्त हो गया है वह सकल परमात्मा है। इसकी अरहन्त, जिन और सर्वज्ञ इत्यादि अनेक संज्ञाएँ हैं। तथा जिसने अन्त में इस शरीर का भी अभाव करके मोक्ष पद को पा लिया है वह निकल परमात्मा है। निकल परमात्मा होने के पहले सकल परमात्म पद की प्राप्ति नियम से होती है । इस पद को पाकर यह जीव सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है। इसी का नाम कैवल्य प्राप्ति है। इस कैवल्य प्राप्ति के लिये उसके प्रतिबन्धक कर्मों का दूर किया जाना आवश्यक है क्योंकि उनको दूर किये बिना इसकी प्राप्ति सम्भव नहीं। वे प्रतिबन्धक कर्म चार हैं। जिनमें से पहले मोहनीय कर्म का क्षय होता है। यद्यपि मोहनीय कर्म कैवल्य अवस्था का सीधा प्रतिबन्ध नहीं करता है, तथापि इसका अभाव हुए बिना शेष कर्मो का अभाव नहीं होता, इसलिये यहाँ इसे भी कैवल्य अवस्था का प्रतिबन्धक माना है। इस प्रकार मोहनीय का अभाव हो

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