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४२६ तत्त्वार्थसूत्र
[६.८-१७. मारना ताड़ना आदि व्यापार के होने पर भी उसे सहज भाव से सह लेना और इसे आत्म-शुद्धि के लिये उपकारी मानना वधपरीषह जय है। १४ भूख प्यास की बाधा सहते-सहते यद्यपि शरीर कृश हो गया है. तथापि जिसके मन में याचना का भाव नहीं है और भिक्षा के समय सहज भाव से यदि आहार पानी मिल जाय तो स्वीकार करता है अन्यथा मन में अलाभ जन्य विकल्प नहीं आने देता याचना परीपहजय है। १५ आहार पानी के लिये पर्यटन करते हुए आहार पानी के न मिलने पर किसी प्रकार का विकल्प न करना अलाभ परीषह जय है। १६ ठंडी गरमी आदि के निमित्त से अनेक रोगों के होने पर भी व्याकुल न होना और शान्तिपूर्वक उन्हें सह लेना रोग परीषह जय है। १७ चलते समय, बैठे हुए या शयन में तृण कांटे आदि के शरीर में चुभने पर भी उसे सह लेना अर्थात् मन में किसी प्रकार का विकल्प न लाना तृण स्पर्श परीषहजय है। १८ शरीर में पसीना आदि के निमित्त से खूब मल जम गया है तो भी उद्विग्न न होना और स्नान
आदि की अभिलाषा न रखना मल परीषहजय है। १६ विविध प्रकार के सत्कार और आमंत्रण आदि के मिलने पर भी उससे नहीं फूलना और ऐसा न होने पर दुःखी नहीं होना सत्कारपुरस्कार परीषहजय है। २० प्रज्ञातिशय के प्राप्त हो जाने पर उसका गर्व न करना प्रज्ञा परीषहजय है। २१ विविध प्रकार की तपश्चर्या आदि के करने पर भी अवधिज्ञान आदि के न प्राप्त होने पर खेद खिन्न न होना और इसे कर्म फल मानना अज्ञान परीषहजय है । २२ बहुत तपश्चर्या की तब भी ज्ञान का अतिशय नहीं प्राप्त हुआ। ऐसा सुना जाता है कि अमुक मुनि को बड़े अतिशय प्राप्त हुए हैं। मालूम होता है कि यह सब प्रलापमात्र है। यह प्रवृज्या ही निष्फल है । यदि इसमें कुछ भी सार होता तो मुझे वैसा माहात्म्य क्यों नहीं प्राप्त होता इत्यादि प्रकार से अश्रद्धा न होने देना और जिनोदित मार्ग में दृढ़ श्रद्धा रखना अदर्शन.परीषहजय है।