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१. ७.८.] तत्त्वों के जानने के उपाय है, ३-किन साधनों से वह बनी है, ४-वह कहाँ रखी रहती है, ५---उसकी काल मर्यादा क्या है और ६---उसके भेद कितने हैं इन छह बातों का ज्ञान करना कराना आवश्यक है। यदि इतनी बातें जान ली जाती हैं तो उस वस्तु का परिपूर्ण ज्ञान समझा जाता है। आगम में ये छह अनुयोगद्वार कहलाते हैं। वहाँ मूल वस्तु को समझने के लिये इन छह बातों का ज्ञान करना आवश्यक बतलाया है। इसके अतिरिक्त विशेष जानकारी के लिये आठ अनुयोगद्वार और बतलाये हैं। प्रस्तुत दो सूत्रों में इन्हीं अनुयोगद्वारों का संग्रह किया गया है।
अधिकतर आगम ग्रन्थों में जीवादि पदार्थों के कथन करने के दो प्रकार दृष्टिगोचर होते हैं। प्रथम प्रकार तो यह है कि अन्य आधार के बिना वस्तु का स्वरूप, उसका स्वामी, उसके उत्पत्ति के साधन, उसके रहने का आधार, उसकी काल मर्यादा और उसके भेद इन सब बातों का कथन किया जाय और दूसरा प्रकार यह है कि जीवादि पदार्थों के अस्तित्व आदि का कथन सामान्य से या गुणस्थान व गति आदि मार्गणाओं के आधार से किया जाय। सूत्रकार ने प्रस्तुत दोनों सूत्रों में प्ररूपणाओं के इन्हीं दोनों क्रमों का निर्देश किया है। यहाँ उक्त दोनों प्रकार की प्ररूपणाओं को लेकर संक्षेप में सम्यग्दर्शन पर विचार किया जाता है। ___ १ निर्देश-'तत्त्वश्रद्धा सम्यग्दर्शन है' ऐसा कथन करना निर्देश है। २ स्वामित्व-सामान्य से सम्यग्दर्शन जीव के ही होता है, अजीव के नहीं; क्योंकि वह जीव का धर्म है। ३ साधन-साधन दो प्रकार का है-अन्तरङ्ग और बाह्य । दर्शन मोहनीय का उपशम, क्षय और क्षयोपशम ये सम्यग्दर्शन के अन्तरंग साधन हैं। इनमें से किसी एक के होने पर सम्यग्दर्शन होता है। तथा जातिस्मरण, धर्मश्रवण, प्रतिमादर्शन, वेदनाभिभव आदि बाह्य साधन हैं। ४ अधिकरण---- सम्यग्दर्शन जीव में ही होता है, अन्यत्र नहीं, इसलिये सम्यग्दर्शन