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१.३०.] एक साथ आत्मा में कितने ज्ञान सम्भव हैं मानते हैं। साथ ही वे यह भी मानते हैं कि मुक्तावस्था में ज्ञान का
आत्मा से सम्बन्ध नहीं रहता। किन्तु इसके विपरीत एक जैन दर्शन ही ऐसा है जिसने ज्ञान को आत्मा का स्वभाव माना है। इस दर्शन में जीव ज्ञानधनपूर्ण माना गया है। किन्तु अनादि काल से पर द्रव्य के संयोग वश जीव अशुद्ध हो रहा है। जिस कारण से निमित्त भेद से वह ज्ञान पांच भागों में विभक्त हो जाता है। जब तक अशुद्धता रहती है तब तक योग्यता और निमित्तानुसार चार अशुद्ध ज्ञान प्रकट होते हैं और अशुद्धता के हटते ही केवलज्ञान महासूर्य का उदय होता है। इनमें से प्रारम्भ के चार ज्ञान पंगु हैं इसलिए अपनी अपनी सीमा के अनुसार वे पदार्थों को जानते हैं और केवलज्ञान परिपूर्ण है इसलिए पदार्थो को जानने की उसकी कोई सीमा नहीं हैं। वह त्रिलोक और त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् जानता है। इसी सिद्धांत को ध्यान में रखकर प्रकृत सूत्रों में पाँचों ज्ञानों के विषय का निर्देश किया गया है ॥ २६-२९॥
एक साथ एक आत्मा में कमसे कम और अधिक से अधिक कितने ज्ञान सम्भव हैं इसका खुलासा
एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुभ्यः ॥३०॥ एक आत्मा में एक साथ एक से लेकर चार तक ज्ञान विकल्प से होते हैं।
प्रस्तुत मूत्र में यह बतलाया गया है कि एक साथ एक आत्मा में कम से कम कितने और अधिक से अधिक कितने ज्ञान हो सकते हैं। एक साथ किसी आत्मा में एक, किसी में दो, किसी में तीन और किसी में चार ज्ञान हो सकते हैं पर एक साथ पाँचों ज्ञान किसी भी
आत्मा में नहीं हो सकते । एक ज्ञान सिर्फ केवलज्ञान होता है, क्योंकि उसकी प्राप्ति सम्पूर्ण ज्ञानावरण कर्मके क्षय से होती है, इसलिए उस