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२८२ तत्त्वार्थसूत्र
[६.७-६. होते हैं। ये ही सब जीवों की विविध अवस्थायें हैं जो कर्मबन्ध की कारण हैं। इनमें से किसी न किसी अवस्था के जरिये प्रत्येक जीव निरन्तर कर्मबन्ध करता रहता है। इन अवस्थाओं को समझने के लिये निम्न लिखित कोष्ठक उपयोगी है
संरम्भ
समारम्भ | आरम्भ
काय
वचन
।
मन
कारित
- अनुमत
१८
-
क्रोध
माया
लोभ ८१
इस कोष्ठक में जीवाधिकरण के सब भेद और उनकी संख्या लाने के क्रम का निर्देश किया गया है।॥ ८॥
जो मूर्त पदार्थ शरीर आदि के द्वारा जीवों के उपयोग में आकर कर्मबन्ध के कारण होते हैं वे सब अजीवाधिकरण हैं। यदि जीवों के उपयोग में आनेवाले मूर्त स्कन्ध द्रव्यों को गिनाया जाय तो वे अगणित हो जाते हैं, इसलिये यहाँ उन्हें न गिना कर उनकी क्रिया परक वे अवस्थायें गिनाई हैं जो जीव के सम्पर्क से हुआ करती हैं। ऐसी अवस्थायें चार हैं। जैसे निर्वर्तना-रचना, निक्षेप-रखना, संयोगमिलाना और निसर्ग-प्रवर्तन । निर्वर्तना के मूलगुणनिर्वर्तना और