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परिणाम का स्वरूप
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परिणाम का स्वरूप
ॐ तद्भावः परिणामः ॥ ४२ ॥ उसका होना अर्थात् प्रति समय बदलते रहना परिणाम है।
परिणाम पर्याय का दूसरा नाम है। जिस द्रव्य का जो स्वभाव है उसी के भीतर उसमें परिवर्तन होता है। जैसे मनुष्य बालक से युवा और युवा से वृद्ध होता है पर वह मनुष्यत्व का त्याग नहीं करता वैसे ही प्रत्येक द्रव्य अपनी धाराके भीतर रहते हुए परिवर्तन करती रहती है। वह न तो सर्वथा कूटस्थ नित्य है. और न सर्वथा क्षणिक ही। ऐसा भी नहीं है कि द्रव्य अलग रहा आवे और उसमें परिणाम अलग से हुआ को किन्तु ऐसा है कि द्रव्य स्वयं मूल जातिका त्याग किये बिना प्रति समय भिन्न भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होते रहते हैं। इनकी इन अवस्थाओं का नाम ही परिणाम है।
ये सब द्रव्यों में अनादि और सादि के भेद से दो प्रकार के होते हैं। प्रवाह की अपेक्षा वे अनादि हैं, क्योंकि परिणाम का प्रवाह प्रत्येक द्रव्य में अनादि काल से चालू है और अनन्तकाल तक चालू रहेगा। उसका न तो आदि है और न अन्त है। तथा विशेष की अपेक्षा सादि हैं । प्रति समय नया नया परिणाम होता रहता है ।।४२॥
** इसके बाद श्वेताम्बर परम्परा में 'अनादिरादिमांश्च, रूपिप्वादिमान् , योगोपयोगी जीवेषु' ये तीन सूत्र और माने हैं।