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तत्त्वार्थसूत्र
[१. ४. जीव का मुख्य स्वभाव चेतना है जो ज्ञानादिक के भेद से अनेक प्रकारकी है। अजीव इससे विपरीत स्वभाववाला है। शुभ और अशुभ कर्मों के आने के द्वाररूप आस्रव तत्त्व है। आत्मा और कर्मा के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना बन्ध है। आस्रव का रोकना संवर है। धीरे धीरे कर्मों का जुदा होना निर्जरा है और सब कर्मों का आत्मा से जुदा हो जाना मोक्ष है। __ शंका-समयसार आदि ग्रन्थों में पुण्य और पाप को मिला कर नौ पदार्थ कह गये है, इस लिये यहाँ तत्त्व सात न कह कर नौ कहने चाहिये।
समाधान-यह सही है कि समयसार आदि ग्रन्थों में पदार्थ नौ कहे गये हैं तथापि पुण्य और पाप का अन्तर्भाव आस्रव और बन्ध में हो जाता है, इसलिये यहाँ नौ तत्त्व न कहकर तत्त्व सात ही कहे हैं। आशय यह है कि ये पुण्य और पाप आस्रव और बन्ध के ही अवान्तर भेद हैं, इसलिये श्रास्रव और बन्धका विशेष विवेचन करने से पुण्य और पाप का स्वरूप समझ में आ ही जाता है इसलिये यहाँ इनका अलगसे निर्देश नहीं कया।
शंका-यदि ऐसा है तो आस्रवादि पाँच तत्त्वों का भी अलग से कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि ये भी जीव और अजीव के भेद हैं ? ___ समाधान-यद्यपि यह कहना सही है कि आस्रवादि पाँच तत्त्व जीव और अजीव के भेद होने से इनका कथन अलग से नहीं करना चाहिये, तथापि यहाँ मोक्ष का प्रकरण है और उसकी प्राप्ति में इनका ज्ञान कराना आवश्यक है इस लिये इनका अलग से विवेचन किया है। आशय यह है कि प्रस्तुत शास्त्र की रचना आत्महित की दृष्टि से की गई है और सञ्चा आत्महित मोक्ष की प्राति हुए बिना सध नहीं सकता, इस लिये मोक्ष की प्राप्ति में मुख्य रूप से जिन वस्तुओं का ज्ञान कराना