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९.८-१७.] परीषहों का वर्णन
४२३ ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥१३॥ दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ ॥ १४ ॥
चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः।॥ १५॥
वेदनीये शेषाः ॥१६॥ एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशतः ॥ १७ ॥ मार्ग से च्युत न होने के लिये और कर्मों का क्षय करने के लिए जो सहन करने योग्य हों वे परीषह हैं।
क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और प्रदर्शन इन नामवाले बार्हस परीषह हैं।
सूक्ष्मसाम्पराय और छद्मस्थवीतराग में चौदह परीषह सम्भव हैं। जिन भगवान में ग्यारह परीषह सम्भव हैं। बादरसाम्पराय में सभी अर्थात् बाईस ही परीषह सम्भव हैं। ज्ञानावरण के सद्भाव में प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होते हैं।
दर्शनमोह और अन्तराय के सद्भाव में क्रम से अदर्शन और अलाभ परीषह होते हैं।
चारित्रमोह के सद्भाव में नग्नता, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, आचना और सत्कारपुरस्कार परीषह होते हैं।
बाकी के सब परीषह वेदनीय के सद्भाव में होते हैं।
एक साथ एक आत्मा में एक से लेकर उन्नीस तक परीषह विकल्प से सम्भव हैं।
संवर के उपायों में परीषहजय भी एक उपाय बतलाया है,