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१.२६.२७.२८.२९.] पाँचों ज्ञानों के विषय पर्यय ज्ञानके स्वामी वर्धमान-चारित्रवाले और सात प्रकार की ऋद्धियों में से कम से कम किसी एक ऋद्धि के धारक संयत ही हो सकते हैं। ४अवधिज्ञान का विषय कतिपय पयोयसहित रूपी द्रव्य है और मनःपर्ययज्ञान का विषय उसका अनन्तवां भाग है। इस प्रकार इन दोनों ज्ञानों में विशुद्धिकृत, क्षेत्रकृत, स्वामीकृत और विषयकृत अन्तर है यह इसका भाव है ॥ २५॥
पांचों ज्ञानों के विषय - मतिश्रुतयोर्निवन्धों द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु * ॥ २६ ॥ रूपिष्ववधेः ॥ २७॥ तदनन्तभागे मनःपर्ययस्य ।। २८ ॥
सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ।। २९ ॥ 'मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति कुछ पर्यायों से युक्त सब द्रव्यों में होती है।
अवधिज्ञान की प्रवृत्ति कुछ पर्यायों से युक्त रूपी पदार्थों में होती है ।
मनः पर्ययज्ञान की प्रवृत्ति अवधिज्ञान के विषय के अनन्तवें भाग में होती है।
केवलज्ञान की प्रवृत्ति सब द्रव्यों में और उनकी सब पर्यायों में होती है।
प्रस्तुत सूत्रों में पाँचो ज्ञानों के विषय का निर्देश किया है। यद्यपि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सब द्रव्यों को जान सकते हैं पर वे सब पर्यायों
_ को न जानकर उनकी कुछ ही पर्यायों को जान सकते पांचों ज्ञानों का
" हैं। अवधिज्ञान केवल रूपी पदार्थों को ही जान सकता
' है अरूपी पदार्थों को नहीं। रूपी पदार्थो से पुद्गल और संसारी जीव लिये गये हैं। मनःपर्ययज्ञान जानता तो रूपी
* श्वेताम्बर सूत्रपाठ 'सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु' ऐसा है ।
विषय