Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 436
________________ ८. ५-१३. ] मूलप्रकृति के अवान्तर भेद और उनका नाम निर्देश ३८१ पहले किया जा चुका है। उनमेंसे पांच ज्ञानों के आवरण में निमित्तज्ञानावरण की पांच भूत कम मातज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिऔर दर्शनावरण की शानावरण, मन : ज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञाना वरण कहलाते हैं। ज्ञानावरणके ये ही पाँच भेद van हैं। तथा चार दर्शनोंके आवरण में निमित्तभूत कर्म चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण कहलाते हैं। दर्शनावरणके चार भेद तो ये हैं तथा इनके अतिरिक्त दर्शनावरण के निद्रादिक पांच भेद और हैं जिनका स्वरूप निम्न प्रकार है-जिस कर्मका उदय ऐसी नींद में निमित्त है जिस से मद,खेद और परिश्रम जन्य थकावट दूर हो जाती है वह निद्रा दर्शनावरण कर्म है। जिस कर्मका उदय ऐसी गाढ़ नींद में निमित्त है जिससे जागना अत्यन्त दुष्कर हो जाय, उठाने पर भी न उठ सके वह निद्रानिद्रादर्शनावरण कर्म है । जिस कार्य का उदय ऐसी नींदमें निमित्त है जिससे बैठे बैठे ही नींद आ जाय, हाथ पैर और सिर घूमने लगे वह प्रचलादर्शनावरण कर्म है । जिस कर्म का उदय ऐसी नींदमें निमित्त है जिससे खड़े खड़े, चलते चलते या बैठे बैठे पुनः पुनः नींद आवे और हाथ पैर चले तथा सिर घूमे वह प्रचलाप्रचला दर्शनावरण कर्म है। तथा जिस कम का उदय ऐसी नोंद में निमित्त है जिससे स्वप्न में अधिक शक्ति उत्पन्न हो जाती है और अत्यन्त गाढ निद्रा आती है वह स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण कर्म है। __ शंका-निद्रादिक को दर्शनावरण के भेदों में क्यों गिनाया ? समाधान-संसारी जीवों के पहले दर्शन होता है पीछे ज्ञान । यतः निद्रादिक सर्व प्रथम दर्शन के न होने में निमित्त ' हैं अतः इन्हें दर्शनावरणके भेदोंमें गिनाया है। जिसका उदय प्राणी के सुखके होने में निमित्त है वह सातावेदनीय वेदनीय कर्म की दो कर्म है और जिसका उदय प्राणी के दुःखके होने उत्तर प्रकृतियां में निमित्त है वह असाता वेदनीय कर्म है।

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