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तत्त्वार्थसूत्र [६. १०-२७. में जुट जाता है तो भी वह उनके निमित्त से पापकर्म का बन्धक नहीं होता । बन्ध और निर्जरा परिणामों पर अवलम्बित है। बाह्य क्रिया पर नहीं, इसलिये संक्लेशरूप परिणामों से की गई जो क्रिया बन्ध की प्रयोजक होती है विशुद्ध परिणामों से की गई वही क्रिया निर्जरा का कारण भी हो सकती है। अतएव केशलोच आदि व्रतों को असातावेदनीय के बन्ध का हेतु मानना उचित नहीं है। ___ इस प्रकार ये दुःखादिक या इसी प्रकार के अन्य निमित्त जब अपने में दूसरे में या दोनों में उत्पन्न किये जाते हैं तो वे उत्पन्न करतेवाले के असातावेदनीय कर्म के बन्ध के हेतु होते हैं ॥११॥ दया से मन भीगा हुआ होने के कारण दूसरे के दुःख को अपना
र ही दुःख मानने का भाव अनुकम्पा है। प्राणीमात्र " पर अनुकम्पा रखना भूतानुकम्पा है । एकदेश व्रत
धारी गृहस्थ और सकल व्रतधारी संयत इन दोनों पर विशेषरूप से अनुकम्पा रखना ब्रत्यनुकम्पा है। अनुग्रह बुद्धि से जिसमें अपनी ममता अतएव स्वामित्व है ऐसी वस्तु दूसरे को अर्पण करना दान है । जो संसार से विरत है किन्तु रागांश शेष है ऐसे साधु का संयम सरागसंयम है। सूत्र में आये हुए आदि पद का अर्थ है संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप। योग शब्द का अर्थ युक्त होना है। ये जो भूतानुकम्पा आदि बतलाये हैं इनमें युक्त होने से सातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है यह इसका तात्पर्य है। इतना ही नहीं किन्तु क्षान्ति और शौच भी सातावेदनीय कर्म के स्त्रव हैं। क्रोधादि दोषों का निवारण करना क्षान्ति है और लोभ तथा लोभ के समान अन्य दोषों का शमन करना शौच है।
इस प्रकार ये सब कारण तथा अरहन्तों की पूजा करने में तत्पर रहना, बाल और वृद्ध तपस्वियों की वैयावृत्य करना आदि कारण भी सांतावेदनीय कर्म के आस्त्रव-बन्धहेतु हैं ॥ १२ ॥
रूप