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तत्त्वार्थसूत्र
८.२४. पद देकर यह बतलाया गया है कि बंधनेवाले ये पुद्गल परमाणु सूक्ष्म होते हैं स्थूल नहीं। पांचवें 'एक क्षेत्रावगाह' पद देकर यह बतलाया गया है कि जीव प्रदेशके क्षेत्रवर्ती कर्म परमाणुओंका ही ग्रहण होता है । जो कर्मपरमाणु उसके बाहर के क्षेत्रमें स्थित हैं उनका ग्रहण नहीं होता । छठे स्थित' पद देकर यह बतलाया गया है कि स्थित कर्म परमाणुओंका ही ग्रहण होता है गतशील कर्म परमाणुओंका नहीं। तात्पर्य यह है कि जिस समय आत्माके विवक्षित प्रदेश जिस क्षेत्रमें होते हैं उस समय वहाँ के बंधने योग्य कर्मपरमाणु उन प्रदेशोंसे बंध जाते हैं। सातवें सर्वात्मप्रदेशेषु' पद देकर यह सूचित किया गया है कि किसी समयमें किन्हीं आत्मप्रदेशोंमें और किसी समयमें किन्हीं आत्मप्रदेशों में बन्ध होता हो ऐसा नहीं है किन्तु प्रति समय सभी आत्मप्रदेशोंमें बन्ध होता है। आठवें 'अनन्तानन्तप्रदेशाः' पद देकर यह सूचित किया गया है कि प्रति समय बंधनेवाले कर्मपरमाणु संख्यात, असंख्यात या अनन्त न होकर अनन्तानन्त होते हैं। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में प्रदेशबन्धका विचार करते हुए उक्त आठ बातोंपर प्रकाश डाला गया है।॥२४॥
कर्म के सम्बन्धमें कुछ विशेष ज्ञातव्य--- ___ कर्मों का बन्ध आत्माके परिणामोंके अनुसार होता है और वे, जैसा उनमें स्वभाव व हीनाधिक फलदान शक्ति पड़ जाती है तदनुसार जीवकी परतन्त्रता
__ कार्य के होने में निमित्त होते रहते हैं। यों तो जीव का कारण कर्म है
. ही स्वयं संसारी होता है और जोव ही मुक्त होता
९ है। राग द्वेष आदि रूप अशुद्ध और कवलज्ञान आदिरूप शुद्ध जितनी भी अवस्थाऐं होती हैं वे सब जीवकी ही होती हैं। ये जीवके सिवा अन्य द्रव्यमें नहीं पाई जाती हैं। तथापि इनमें शुद्धता और अशुद्धताका भेद् निमित्तकी अतेक्षासे किया जाता है। निमित्त दो प्रकारके माने गये हैं। एक वे जो साधारण कारण रूपसे