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१०. २.] मोक्ष का स्वरूप
४५३ जाने के पश्चात् 'अन्तर्मुहूर्त में तीन कर्मों का नाश होता है और तब जाकर कैवल्य अवस्था की प्राप्ति होती है। इस अवस्था की प्राप्ति हुए बिना मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं इस लये मोक्ष का वर्णन करने के पहले इसका वर्णन किया है ॥१॥
मोक्ष का स्वरूपबन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ॥२॥
बन्धहेतुओं के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है।
संसार की परिपाटी उस नौका के समान है जिसमें से पानी तो निकाला जा रहा हो पर पानी आने का स्रोत बन्द न हो। यह जीव प्रति समय नवोन कर्मों का बन्ध करता रहता है और पूर्वबद्ध कर्मो के फल को भोगकर उनकी निर्जरा भी करता रहता है। पर जब तक नवीन कर्मो का बन्ध न रुके तब तक बँधे हुए कर्मो को निर्जरा होने मात्र से मुक्ति नहीं मिल सकती। इसके लिये निर्जरा की अपेक्षा कर्मों के होनेवाले बन्ध को रोकना अत्यन्त आवश्यक है। पर यह नवीन बन्ध तब रुक सकता है जब बन्ध के हेतुओं का अभाव किया जाय। पहले बन्ध के हेतु पाँच बतलाये हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इनके दूर कर देने से नवीन बन्ध नहीं होता है और तब जाकर संचित कर्मों की निजरा भी पूरी तरह से की जा सकती है। इसी कारण से प्रस्तुत सूत्र में सब कर्मो का आत्यन्तिक अभाव करने के लिये बन्ध के हेतुओं का अभाव और निर्जरा का होना आवश्यक बतलाया है। आशय यह है कि यद्यपि कैवल्य प्राप्ति के समय मोहनीय आदि चार कर्मों का अभाव बतला आये हैं पर उसके बाद भी इसके वेदनीय आदि चार कम शेष रहते हैं और बन्ध के हेतुओं में योग शेष रहता है जिससे मोक्ष नहीं होता। जब जाकर यह