________________
६. १.] संवर का स्वरूप
४११ __इनका तीसरे आदि किसी भी गुणस्थान में आस्रव नहीं होता। तीसरे गुणस्थान में इतनी विशेषता है कि वहाँ आयु के आस्रव के योग्य परिणाम नहीं होते इसलिये वहाँ किसी आयु का भी आस्रव
नहीं होता।
चौथे गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण के उदय से प्राप्त होनेवाली अविरति पाई जाती है और पाँचवें गुणस्थान में उसका अभाव हो जाता है इसलिये वहाँ इस निमित्त से आस्रव को प्राप्त होनेवाले १० कर्मों का संवर हो जाता है। वे १० कर्म ये हैंअप्रत्याख्यानाचरण क्रोध मान माया लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति,
औदारिक शरीर, औदारिक आंगोपांग, वज्रषभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी । __ इनका पाँचवें आदि किसी भी गुणस्थान में प्रास्रव नहीं होता। इतनी विशेषता है कि चौथे गुणस्थान में मनुष्यायु, देवायु और तीर्थकर प्रकृति का आस्रव होना सम्भव है।
पाँचवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण के उदय से प्राप्त होनेवालो अविरति पाई जाती है और छठे गुणस्थान में उसका अभाव हो जाता है इसलिये वहाँ इस निमित्त से आस्रव को प्राप्त होनेवाले प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कर्मों का संवर हो जाता है। अगले किसी भी गुणस्थान में इनका आस्रव नहीं होता।
छठे गुणस्थान में प्रमाद पाया जाता है और आगे उसका अभाव हो जाता है, इसलिये वहाँ प्रमाद के निमित्त से प्रास्त्रव को प्राप्त होनेवाले ६ कर्मों का संवर हो जाता है। वे ६ कर्म ये हैं-असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति। अगले . किसी भी गुणस्थान में इनका आस्रव नहीं होता। इतनी विशेषता है कि छठे गुणस्थान से आहारक द्विक का आस्रव होने लगता है।